श्मशान की सिद्ध भैरवी ( भाग--12 )
परम श्रध्देय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अद्भुत अलौकिक अध्यात्म-ज्ञानधारा में पावन अवगाहन
पूज्यपाद गुरुदेव के श्रीचरणों मे कोटि-कोटि नमन
------:रहस्यमय वातावरण:------
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कभी कल्पना नहीं की थी कि ऐसा दृश्य देखने को मिलेगा जीवन में। सारा शरीर पाषाणवत हो गया मेरा। खून पानी हो गया और मस्तिष्क शून्यप्राण। उस रहस्यमय वातावरण में होने वाली पैशाचिक लीला को जो भी देखता, उसकी यही दशा होती। वह भी मेरी ही तरह भय से जड़ हो उठता उस समय।
उस रहस्यमय गुप्त दरवाजे के उस पार जो वातावरण था और उस वातावरण में जो कुछ देखा मैंने, वह सब इस दुनियां से परे अनजाना लोक-सा प्रतीत हो रहा था।
मैं वाराणसी में पैदा हुआ हूँ। वाराणसी के ही वातावरण में साँस ली है और यहीं की संस्कृति और संस्कार में पला बड़ा हूँ। वाराणसी के कोने-कोने से परिचित हूँ और इसके हर रूप को अच्छी तरह जानता हूँ, मगर वाराणसी का एक रूप ऐसा भी है जो इसकी धरती के नीचे है, इससे अब तक अपरिचित ही था मैं। कभी किसी के मुंह से सुना था कि काशी में अभी भी उच्चकोटि के साधक, सन्त, महात्मा, योगी और तान्त्रिक निवास करते हैं। लेकिन उनके गुप्त निवास-स्थान काशी में कहाँ हैं ?--इसे बहुत ही कम लोग जानते हैं। जो लोग जानते भी हैं, वे न जाने क्यों किसी को बतलाते नहीं।
लेकिन मेरे सामने वह रहस्य अनावृत हो चुका था और मैं यह जान गया था कि वे लोग इसी प्रकार काशी की धरती के नीचे न जाने कब के बने तलघरों में रहते है और साधना-उपासना करते होंगे।
वह कमरा भी काफी लम्बा-चौड़ा था और उसकी भी दीवारें और फर्श लाल पत्थरों से बने थे। दीवारों पर कई नर-कंकाल झूल रहे थे। कुछ मानव खोपड़ियां भी रखी थीं जिन पर लाल सिन्दूर लगा था। मैं समझ गया था कि निश्चय ही वहां नर-बलि होती रही होगी कभी।
कमरे के एक ओर चौड़े पत्थर की वेदी थी जिस पर पद्मासन की मुद्रा में एक मानव-कंकाल बैठा हुआ था। उसकी खोपड़ी हद से ज्यादा बड़ी थी। उसके चारों ओर सुनहरे रंग का वलय (प्रभा- मण्डल) था। उस कंकाल से रुपहली, सुनहरी रश्मियाँ फूट रही थीं। कभी-कभी वह कंकाल अपने-आप कांपता फिर स्थिर हो जाता था। उस समय पलभर को ऐसा लगता था कि उसमें जैसे चेतना आ गयी हो।
वेदी के ठीक नीचे एक हवन-कुण्ड बना हुआ था जो काफी गहरा था। उसमें से सुगन्धित धुआँ निकल-निकल कर चारों ओर फ़ैल रहा था। हवन-कुण्ड के चारों तरफ लोहे और तांबे के कई त्रिशूल गड़े हुए थे। उन सब पर भी लाल सिन्दूर पुता हुआ था। थोड़े ही फासले पर एक बड़ा सा खड्ग रखा हुआ था। उस पर ताज़ा खून के धब्बे थे और वह अति भयानक और विकराल दिखाई देता था। ऐसा लग रहा था कि अभी थोड़ी देर पहले ही किसी की बलि दी गयी थी। कमरे के बायीं और भी तीन-चार वेदियां थीं जिन पर ताजे शव लिटा कर रखे गए थे जिनके सिरहाने चौमुखा दीप जल रहे थे। शवों के चेहरों को छोड़कर शेष भाग लाल कपड़ों से ढके थे।
क्रमशः--
आगे है--'रहस्यमय साधना-स्थली'
नोध : इस लेख में दी गई सभी बातें सामान्य जानकारी के लिए है हमारी पोस्ट इस लेख की कोई पुष्टि नहीं करता
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