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5/05/2022

श्मशान की सिद्ध भैरवी ( भाग--01 )

   
                           
   

श्मशान की सिद्ध भैरवी भाग--01 )




परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अद्भुत अलौकिक अध्यात्म-ज्ञानधारा में पावन अवगाहन


पूज्यपाद गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन


    ( ब्रह्मलीन श्रध्देय गुरुदेव अरुण कुमार शर्मा के आध्यात्मिक जीवन-यात्रा की कुछ अलौकिक अनुभूतियों की बहुमूल्य स्मृतियाँ)


       लगभग पैंतालीस वर्ष पूर्व कार्तिक का महीना था। हवा में हलकी सिहरन थी। साँझ की स्याही बिखर चुकी थी चारों ओर। मैं रोज की तरह लाली घाट की सीढ़ियों पर बैठा जीवन और मृत्यु के दर्शन पर चिन्तन कर रहा था। अपने आप में एक अजीब शून्यता का अनुभव कर रहा था मैं।

        वातावरण में गहरी नीरवता छाई हुई थी। समय धीरे-धीरे व्यतीत होता जा रहा था और उसी के साथ रात्रि की कालिमा भी प्रगाढ़ होती जा रही थी। श्मशान भी खामोश था उस समय। कुछ देर पहले कोई लाश जलाई गयी थी जिसकी चिता की राख अभी गरम ही थी क्योंकि उसके सीने से धुएं की एक पतली लकीर निकल कर हवा में चक्कर काट रही थी।

       पूरब के आकाश के स्याह पटल पर शुक्र तारा झिलमिला रहा था। अपलक निहारने लगा मैं उसी की ओर। फिर जैसे बड़बड़ाने लगा मैं अपने आप से--कहाँ मिलेगी मुझे शान्ति...कैसे समझाऊँ मैं अपने मनको ..?

      उसी समय किसी के खिलखिलाकर हंसने की आवाज़ सुनाई  पड़ी तो एकबारगी चौंक पड़ा मैं। चारों तरफ सिर घुमाकर अँधेरे में देखने की चेष्टा की। सीढ़ियों के बगल में लाश रखने के लिए एक चबूतरा बना हुआ था। अँधेरे में डूबे टूटे-फूटे उसी चबूतरे पर बैठी एक भिखारिन मेरी ओर देखती हुई हंस रही थी। अधेड़ उम्र, जटा-जूट जैसी केशराशि धूल में सनी हुई थी। गन्दे शरीर पर मैली-कुचैली, फटी-पुरानी धोती लिपटी हुई थी। बगल में एक सोटा, गठरी और अल्युमिनियम का एक कटोरा पड़ा था जिसमें सवेरे का सुखा भात पड़ा था। निश्चय ही उसी भिखारिन के हंसने की आवाज़ थी वह।

      लेकिन वह भिखारिन क्यों हंसी थी ?--मैं समझ न सका। मगर जब उठकर चलने लगी तो वह मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी और पूर्ववत 'खी-खी' कर हंसती हुई बोली--समझती थी कि एक मैं ही पागल हूँ, पर तू तो मुझसे भी बढ़कर पागल निकला रे। 

       और तभी दुर्गन्ध का एक तेज भभका न जाने किधर से आकर बिखर गया मेरे चारों ओर। निश्चय ही वह दुर्गन्ध भिखारिन के गन्दे कपड़ों से निकल रही थी। मुझसे अब और नहीं रुका गया वहां। इसलिए अँधेरे में ही जल्दी-जल्दी सीढियां चढ़कर ऊपर आ गया मैं। भिखारिन फिर 'खी-खी' कर हंस पड़ी। मैंने एक बार सिर घुमा कर फिर उसकी ओर देखा। इसके बाद तेज कदमों से आगे बढ़ गया।

      उन दिनों मेरे एक तांत्रिक मित्र थे। उनका नाम था--तारानाथ भट्टाचार्य। वह कालीबाड़ी में रहते थे। एक दिन न जाने कैसे बातों-ही- बातों में मैंने उस भिखारिन की चर्चा उनसे कर दी। मेरी बात सुनकर भट्टाचार्य महोदय पहले तो मुस्कराये, फिर अचानक गम्भीर हो गए। वे क्यों मुस्कराये और फिर क्यों गम्भीर हो गए ?--मैं समझ न सका। भौंचक्का-सा मैं उनकी ओर देखता ही रह गया । कुछ क्षणों के बाद वे गम्भीर स्वर में बोले--जो भिखारिन तुमको श्मशान में मिली थी, जानते हो वह कौन है ?

      क्या जवाब देता मैं। मैं तो एक दुर्गंधमयी, मैली-कुचैली, पागल-सी भिखारिन से मिला था जो मुझे भी पागल समझकर 'खी-खी' कर हंस पड़ी थी।

      फिर भट्टाचार्य महाशय ने बतलाया--वह पागल भिखारिन नहीं, उच्चकोटि की तांत्रिक सन्यासिनी है।

       ऐं ! क्या कहा आपने !--चौंक कर बोला मैं--वह तांत्रिक सन्यासिनी है ?

       हाँ, उच्चकोटि की शव-साधिका है वह। उसे शव-सिद्धि प्राप्त है। इसके आलावा और कई प्रकार की दुर्लभ सिद्धियां प्राप्त हैं उसे। उसकी उम्र कितनी है--यह कोई नहीं बतला सकता। मैं भी नहीं जानता--भट्टाचार्य महाशय पलभर रुके फिर बोले--किसी रियासत की राज कुमारी थी वह। नाम था स्वर्णा। जब स्वर्णा 16 वर्ष की हुई तो रियासत के राज- तान्त्रिक ने उसे दीक्षा देकर अपनी भैरवी बना लिया। इसके लिए स्वयं रियासत के महराज ने स्वीकृति दी थी।

      उस राज-तान्त्रिक का नाम क्या था ?

       राजेश्वरानन्द अवधूत--भट्टाचार्य महाशय अतीत में खोये हुए बताने लगे--राजेश्वरानंद अवधूत स्वयं उच्च कोटि के शव-साधक थे। पिशाच सिद्ध था उन्हें। स्वर्णा के सहयोग से उन्होंने अपनी साधना के अन्तिम लक्ष्य-'कुण्डलिनी-जागरण' करने का प्रयास किया था। शायद इसी अनुष्ठान के निमित्त स्वर्णा भैरवी बनायी गयी थी। लेकिन अपने प्रयास में वे सफल न हो सके। हाँ, स्वर्णा अवश्य सफल हो गयी। उसकी प्रसुप्त कुण्डलिनी एकाएक ही जागृत हो गयी। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि मैंने स्वयं अपनी आँखों से कुण्डलिनी से सम्बंधित उसके कई चमत्कारों को देखा है।

      थोड़ा रूककर भट्टाचार्य महाशय फिर आगे बोलने लगे--राजेश्वरानंद काशी के ही थे। उनका शरीर तो अब नहीं है, मगर उनका रहस्यमय साधनाश्रम अभी भी यहीं कहीं है। लोगों का कहना है कि उस रहस्यमय आश्रम से पारलौकिक जगत का अगोचर सम्बन्ध है। आज भी कभी-कदा गुप्त रूप से संचरण-विचरण करने वाले मानवेतर शक्तिसंपन्न योगी और तान्त्रिक साधक उस आश्रम में आते हैं, मगर उन्हें न कोई समझ सकता है और न पहचान ही सकता है।

      यह सब सुनकर मेरा मन उद्भ्रान्त-सा हो गया। पूरी रात नींद नहीं आई। बार-बार उस भिखारिन का रूप मेरे सामने थिरक उठता था। आखिर जैसे-तैसे सवेेरा हुआ। मैं श्मशान पहुंचा और इधर-उधर खोज करने लगा। कई लोगों से पूछा भी मैंने मगर न वह भिखारिन मुझे मिली और न उसका पता ही चला। हताश और निराश होकर लौट आया मैं। इसके बाद भी मैं रोज शमशान जाता रहा। पर उस भिखारिन का दर्शन नहीं हुआ मुझे। समझ में नहीं आ रहा था कि वह कहाँ चली गयी ?

       धीरे-धीरे तीन-चार महीनों का समय गुजर गया। एक दिन मैं अपने मित्र के साथ पिच्चर देखने गया था। नावेल्टी हॉल में 'चैतन्य महाप्रभु' फ़िल्म लगी थी। भीड़ काफी थी। टिकिट मिलना मुश्किल देखकर  मैं खड़ा-खड़ा सोच रहा था कि क्या किया जाय ? तभी मेरी नज़र एक प्रौढ़ा नारी पर पड़ी। उसका व्यक्तित्व असाधारण था। शायद उसके असाधारण व्यक्तित्व ने ही मुझे आकर्षित किया था। उम्र करीब 35-40 की रही होगी। लेकिन चेहरे पर अभी भी किशोर वय-सा लावण्य था। दूध में आलता मिला देने से जो रंग बनता है, वैसा ही था उस प्रौढ़ा स्त्री के शरीर का रंग। बाल भी काफी घने और काले थे। महाराष्ट्रीयन स्त्रियों की तरह बालों में चम्पा की वेणी लगा रखी थी। हाथों में सोने की जड़ाऊ चूड़ियाँ पड़ीं थीं। कीमती कश्मीरी शॉल लपेटे थी वह अपने शरीर पर। मस्तक पर सिन्दूर का बड़ा- सा गोल टीका लगा था। चेहरा दप-दप करके किसी अज्ञात तेज से दमक रहा था। आँखें असाधारण थीं। एक विचित्र किस्म का आकर्षण था उनमें। मगर आँखों में स्थिरता, गहराई और असीम करुणा भरी थी।

       जब मैं निराश होकर अपने मित्र के साथ वापस लौटने लगा तो वह मुस्कराते हुए धीरे-धीरे चलकर मेरे करीब आई और हंसकर बोली--टिकिट नहीं मिला ? यह लो। और उसने बालकनी के दो टिकिट मेरी ओर बढ़ा दिए। एक अपरिचित स्त्री का इस तरह से प्रश्न करना और बिना मांगे टिकिट देने की पेशकस करना मुझे बड़ा ही आश्चर्यजनक लगा । सकपका कर बोला--मैं तो आपको जानता-पहचानता तक नहीं। कौन हैं आप ?

      मेरा प्रश्न सुनकर वह खिलखिलाकर हंस पड़ी एकबारगी। फिर बोली--मैं स्वर्णा हूँ--श्मशान की वही पगली भिखारिन जो उस रात तुमको मिली थी।

      एकबारगी चौंक पड़ा मैं। फिर अपने को सँभालते हुए बोला--क्या कहती हैं आप ? मुझे विश्वास नहीं होता। कहाँ आप और कहाँ वह मैली-कुचैली दुर्गंधयुक्त,  पागल, भिखारिन ?


क्रमशः---


नोध : इस लेख में दी गई सभी बातें सामान्य जानकारी के लिए है हमारी पोस्ट इस लेख की कोई पुष्टि नहीं करता

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