भागवद गीता, अध्याय १०
पूरा विश्व ही परमात्मा की अनंत विभूतियां है, पर मुख्य मुख्य वह है जिसमें परमात्मा की कृपा सहज ही देखी जा सकती है।
आयुधानामहं वज्रं धेनूनामस्मि कामधुक्।
प्रजनश्चास्मि कन्दर्पः सर्पाणामस्मि वासुकिः॥
अनन्तश्चास्मि नागानां वरुणो यादसामहम्।
पितॄणामर्यमा चास्मि यमः संयमतामहम्॥
मैं शस्त्रों में वज्र और गौओं में कामधेनु हूँ। शास्त्रोक्त रीति से सन्तान की उत्पत्ति का हेतु कामदेव हूँ और सर्पों में सर्पराज वासुकि हूँ। मैं नागों में (नाग और सर्प ये दो प्रकार की सर्पों की ही जाति है।) शेषनाग और जलचरों का अधिपति वरुण देवता हूँ और पितरों में अर्यमा नामक पितर तथा शासन करने वालों में यमराज मैं हूँ।
हे धनुर्धर! सब हथियारों में मैं वज्र हूं, जो सो अश्वमेध यज्ञ करके कृतार्थ होने वाले इंद्र के हाथ में रहता हूं। गायों में मैं कामधेनु हूं, जन्म देने वालों में जो मदन है वह मैं हूं, हे कुंती पुत्र सर्प कुल का नायक वासुकी मैं हूं। और संपूर्ण नागों में मैं अनंत नाग मै हूं। और जल चरो में पश्चिम दिशा का स्वामी वरुण भी मैं ही हूं, मैं यथार्थ कह रहा हूं कि संपूर्ण पितृ गण में जो पितृ देवता अर्यमा है वह मैं हूं। जग के जो शुभाशुभ लिखने वाले प्राणियों के मन का खोज करने वाले, और कर्मानुसार भोगों के देने वाले उन शासन कारों का जो यम है वह में हूं।
॥28॥ ॥29॥
प्रह्लादश्चास्मि दैत्यानां कालः कलयतामहम्।
मृगाणां च मृगेन्द्रोऽहं वैनतेयश्च पक्षिणाम्॥
मैं दैत्यों में प्रह्लाद और गणना करने वालों का समय (क्षण, घड़ी, दिन, पक्ष, मास आदि में जो समय है वह मैं हूँ) हूँ तथा पशुओं में मृगराज सिंह और पक्षियों में गरुड़ हूँ।
॥30॥
पवनः पवतामस्मि रामः शस्त्रभृतामहम्।
झषाणां मकरश्चास्मि स्रोतसामस्मि जाह्नवी॥
मैं पवित्र करने वालों में वायु, और शस्त्रधारियों में श्रीराम हूँ, तथा मछलियों में मगर हूँ, और नदियों में श्री भागीरथी गंगाजी हूँ।
॥31॥
सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।
अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्॥
हे अर्जुन! सृष्टियों का आदि और अंत तथा मध्य भी मैं ही हूँ। मैं विद्याओं में अध्यात्मविद्या अर्थात् ब्रह्मविद्या और परस्पर विवाद करने वालों का तत्व-निर्णय के लिए किया जाने वाला वाद हूँ।
॥32॥
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वंद्वः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताहं विश्वतोमुखः॥
मैं अक्षरों में ॐ कार हूँ, और समासों में द्वंद्व नामक समास हूँ, अक्षयकाल अर्थात् काल का भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला, विराट्स्वरूप, सबका धारण-पोषण करने वाला भी मैं ही हूँ।
॥33॥
भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि मेरी विशेष विभूतियां यदि संपूर्ण जानना चाहो तो एक मेरा शुद्ध शुरू की जान लेना आवश्यक है!!! अन्यथा मेरी अलग-अलग भूतिया कितनी और कहां तक सुनोगे इसलिए हे महामति एकदम यह जान लो कि सभी मैं हूं। मैं संपूर्ण सृष्टि के आदि में मध्य में और अंत में हूं जैसे की कपड़े में तंतु सर्वत्र समान भरा रहता है वैसे मुझे ऐसा व्यापक जान लो तो फिर विभूतियों के भेद से क्या काम है??
भगवान श्रीकृष्ण की विभूतियां भेद के लिए नहीं है। पर एकता के लिए है कि परमात्मा ना हो ऐसी कोई भी चीज अस्तित्व में नहीं है।
अस्तु।
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