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7/17/2021

हरियाली तीज का व्रत या संसार की पहली प्रेम कथा

   
                           
   

हरियाली तीज का व्रत या संसार की पहली प्रेम कथा



सावन महीने के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को कहीं कज्जली तीज तो कहीं हरियाली तीज के नाम से जाना जाता है। 


हरियाली तीज के दिन विवाहित स्त्रियां अपने पति की दीर्घायु के लिए व्रत रखती हैं। इस दिन स्त्रियों के मायके से श्रृंगार का सामान और मिठाइयां उनके ससुराल भेजी जाती है। हरियाली तीज के दिन महिलाएं सुबह घर के काम और स्नान करने के बाद सोलह श्रृंगार करके निर्जला व्रत रखती हैं। भविष्य पुराण में देवी पार्वती बताती हैं की तृतीया तिथि का व्रत उन्होंने बनाया है जिससे स्त्रियों को सुहाग और सौभाग्य की प्राप्ति होती है। सावन महीने में तृतीया तिथि को सौ वर्ष की तपस्या के बाद देवी पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने का वरदान प्राप्त किया था। इसके बाद मां पार्वती और भगवान शिव की पूजा होती है।

पूजा के अंत में तीज की कथा सुनी जाती है। कथा के समापन पर महिलाएं मां गौरी से पति की लंबी उम्र की कामना करती है। इसके बाद घर में उत्सव मनाया जाता है और भजन व लोक नृत्य किए जाते है. इस दिन झूला-झूलने का भी रिवाज है।


इसकी कथा माता पार्वती ने भी महादेव से पूछी थी। तब महादेव जी बोले,  “हे गौरी! पर्वतराज हिमालय पर गंगा के तट पर तुमने अपनी बाल्यावस्था में अधोमुखी होकर घोर तप किया था। इस अवधि में तुमने अन्न ना खाकर केवल हवा का ही सेवन के साथ तुमने सूखे पत्ते चबाकर काटी थी।  माघ की शीतलता में तुमने निरंतर जल में प्रवेश कर तप किया था।  वैशाख की जला देने वाली गर्मी में पंचाग्नि से शरीर को तपाया।  श्रावण की मूसलाधार वर्षा में खुले आसमान के नीचे बिना अन्न जल ग्रहण किए व्यतीत किया।  तुम्हारी इस कष्टदायक तपस्या को देखकर तुम्हारे पिता बहुत दुःखी और नाराज़ होते थे।  तब एक दिन तुम्हारी तपस्या और पिता की नाराज़गी को देखकर नारदजी तुम्हारे घर पधारे। 


तुम्हारे पिता द्वारा आने का कारण पूछने पर नारदजी बोले – ‘हे गिरिराज! मैं भगवान् विष्णु के भेजने पर यहां आया हूं। आपकी कन्या की घोर तपस्या से प्रसन्न होकर वह उससे विवाह करना चाहते हैं।  इस बारे में ‘मैं आपकी राय जानना चाहता हूं’ ! नारदजी की बात सुनकर पर्वतराज अति प्रसन्नता के साथ बोले- “श्रीमान! यदि स्वयं विष्णुजी मेरी कन्या का वरण करना चाहते हैं तो मुझे क्या आपत्ति हो सकती है।  वे तो साक्षात ब्रह्म हैं।  यह तो हर पिता की इच्छा होती है कि उसकी पुत्री सुख-सम्पदा से युक्त पति के घर की लक्ष्मी बने। ”


नारदजी तुम्हारे पिता की स्वीकृति पाकर विष्णुजी के पास गए और उन्हें विवाह तय होने का समाचार सुनाया।  परंतु जब तुम्हें इस विवाह के बारे में पता चला तो तुम्हारे दुःख का ठिकाना ना रहा।  तुम्हे इस प्रकार से दुःखी देखकर, तुम्हारी एक सहेली ने तुम्हारे दुःख का कारण पूछने पर तुमने बताया कि – ‘मैंने सच्चे मन से भगवान् शिव का वरण किया है, किन्तु मेरे पिता ने मेरा विवाह विष्णुजी के साथ तय कर दिया है।  मैं विचित्र धर्मसंकट में हूँ।  अब मेरे पास प्राण त्याग देने के अलावा कोई और उपाय नहीं बचा। ’ तुम्हारी सखी बहुत ही समझदार थी।  उसने कहा – ‘प्राण छोड़ने का यहाँ कारण ही क्या है? संकट के समय धैर्य से काम लेना चाहिए।  भारतीय नारी के जीवन की सार्थकता इसी में है कि जिसे मन से पति रूप में एक बार वरण कर लिया, जीवनपर्यन्त उसी से निर्वाह करे।  सच्ची आस्था और एकनिष्ठा के समक्ष तो भगवान् भी असहाय हैं।  मैं तुम्हे घनघोर वन में ले चलती हूँ जो साधना थल भी है और जहाँ तुम्हारे पिता तुम्हे खोज भी नहीं पायेंगे।  मुझे पूर्ण विश्वास है कि ईश्वर अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे। 


तुमने ऐसा ही किया….. तुम्हारे पिता तुम्हे घर में न पाकर बड़े चिंतित और दुःखी हुए। वह सोचने लगे कि मैंने तो विष्णुजी से अपनी पुत्री का विवाह तय कर दिया है।  यदि भगवान् विष्णु बारात लेकर आ गये और कन्या घर पर नहीं मिली तो बहुत अपमान होगा, ऐसा विचार कर पर्वतराज ने चारों ओर तुम्हारी खोज शुरू करवा दी।  इधर तुम्हारी खोज होती रही उधर तुम अपनी सहेली के साथ नदी के तट पर एक गुफा में मेरी आराधना में लीन रहने लगी।  भाद्रपद तृतीय शुक्ल को हस्त नक्षत्र था।  उस दिन तुमने रेत के शिवलिंग का निर्माण किया।  रात भर मेरी स्तुति में गीत गाकर जागरण किया।  तुम्हारी इस कठोर तपस्या के प्रभाव से मेरा आसन हिल उठा और मैं शीघ्र ही तुम्हारे पास पहुँचा और तुमसे वर मांगने को कहा तब अपनी तपस्या के फलीभूत मुझे अपने समक्ष पाकर तुमने कहा – ‘मैं आपको सच्चे मन से पति के रूप में वरण कर चुकी हूँ।  यदि आप सचमुच मेरी तपस्या से प्रसन्न होकर यहाँ पधारे हैं तो मुझे अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकार कर लीजिये। 

 ‘तब ‘तथास्तु’ कहकर मैं कैलाश पर्वत पर लौट गया। 


प्रातः होते ही तुमने पूजा की समस्त सामग्री नदी में प्रवाहित करके अपनी सखी सहित व्रत का वरण किया।  उसी समय गिरिराज अपने बंधु – बांधवों के साथ तुम्हे खोजते हुए वहाँ पहुंचे। तुम्हारी दशा देखकर अत्यंत दुःखी हुए और तुम्हारी इस कठोर तपस्या का कारण पूछा।  तब तुमने कहा – ‘पिताजी, मैंने अपने जीवन का अधिकांश वक़्त कठोर तपस्या में बिताया है।  मेरी इस तपस्या के केवल उद्देश्य महादेवजी को पति के रूप में प्राप्त करना था। आज मैं अपनी तपस्या की कसौटी पर खरी उतर चुकी हूँ।  चूंकि आप मेरा विवाह विष्णुजी से करने का निश्चय कर चुके थे, इसलिये मैं अपने आराध्य की तलाश में घर से चली गयी। अब मैं आपके साथ घर इसी शर्त पर चलूंगी कि आप मेरा विवाह महादेवजी के साथ ही करेंगे।  पर्वतराज ने तुम्हारी इच्छा स्वीकार कर ली और तुम्हे घर वापस ले गये।  कुछ समय बाद उन्होंने पूरे विधि – विधान के साथ हमारा विवाह किया। ”

भगवान् शिव ने आगे कहा – “हे पार्वती! भाद्र पद कि शुक्ल तृतीया को तुमने मेरी आराधना करके जो व्रत किया था, उसी के परिणाम स्वरूप हम दोनों का विवाह संभव हो सका।  इस व्रत का महत्त्व यह है कि मैं इस व्रत को पूर्ण निष्ठा से करने वाली प्रत्येक स्त्री को मन वांछित फल देता हूँ। ” भगवान् शिव ने पार्वतीजी से कहा कि इस व्रत को जो भी स्त्री पूर्ण श्रद्धा से करेगी उसे तुम्हारी तरह अचल सुहाग प्राप्त होगा। 


इस व्रत को ‘हरितालिका’ इसलिये कहा जाता है क्योंकि पार्वती की सखी उन्हें पिता और प्रदेश से हर कर जंगल में ले गयी थी।  ‘हरित’ अर्थात हरण करना और ‘तालिका’ अर्थात सखी।

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