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6/14/2022

ध्यान क्या है ? ( भाग--07 )

   
                           
   

ध्यान क्या है ? ( भाग--07 )


परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अद्भुत अलौकिक अध्यात्म-ज्ञानगंगा में पावन अवगाहन


पूज्यपाद गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन

      

     ---:ध्यान का द्वितीय चरण:---

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     ध्यान के दूसरे चरण में ह्रदय के मध्य पीले रंग की जवाकृति ज्योति की कल्पना कर उस पर ध्यानावस्था में मन को केंद्रित करना चाहिए। ध्यान के समय ह्रदय को हल्का और शिथिल रखना चाहिए। किसी भी प्रकार का भाव वहां नहीं रहना चाहिए। जिस प्रकार मस्तिष्क में तरह-तरह के विचार होते हैं, उसी प्रकार हृदय में भी तरह तरह के भाव होते हैं। ध्यान के समय किसी भी प्रकार का भाव न रहे। जैसे-जैसे काल्पनिक पीली ज्योति पर ध्यान एकाग्र होगा, वैसे-ही- वैसे मन प्रगाढ़ होगा और उसी के साथ एक विशेष प्रकार के आनंद की अनुभूति ह्रदय में होगी। उसी अनिर्वचनीय आनंद को 'सहजानन्द' की संज्ञा दी गयी है योग में। समय आने पर ध्यान की परिपक्वावस्था में वह काल्पनिक ज्योति भी जवाकृति रूप में प्रज्ज्वलित हो उठेगी जिसका वर्ण पीला होगा।


      ------:ध्यान का तृतीय चरण:------

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     तृतीय चरण में नाभि केंद्र जवाकृति शुभ्रज्योति का ध्यान करना चाहिए। जैसे- जैसे मन की एकाग्रता बढ़ती जायेगी और ध्यान गहरा होता जायेगा, वैसे-ही-वैसे ध्यान का विकास होता जायेगा आत्म-चेतना के भीतर और जब प्रत्यक्ष रूप से यह अनुभव होने लगे कि काल्पनिक शुभ्रज्योति साकार होकर प्रज्ज्वलित हो गयी है तो समझ लेना चाहिए कि तीसरे नाभिकेंद्र की साधना पूरी हो गयी है। लेकिन ध्यान बराबर होते रहना चाहिए क्योंकि एक समय ऐसा आएगा कि वही ध्यान पूर्णतया प्रगाढ़  होकर समाधि में परिवर्तित हो जायेगा जिसे योग की भाषा में 'सहज समाधि' कहते हैं।

      सहज समाधि वास्तव में ध्यान का ही प्रगाढ़ रूप है। योग के अनुसार सहज समाधि की अवस्था को उपलब्ध होते ही साधक का सीधा सम्बन्ध 'चैतन्य' से स्थापित हो जाता है। जैसे ध्यान का अभ्यास करते-करते वह सहज हो जाता है, वैसे ही वह समाधि भी सहज हो जाती है। इसीलिए तो उसे 'सहज समाधि' कहते हैं। सहज समाधि न समय देखती है और न देखती है स्थान। वह कभी भी और किसी भी अवस्था में लग जाती है।

     सहज समाधि की अवस्था में साधक की बाह्य चेतना कुछ समय के लिए लुप्त हो जाती है और अंतर्चेतना हो उठती है जाग्रत। उस समय वह जिस आनंद की अनुभति करता है, उसे कहते हैं--'आत्मानंद'।

     योग अति दुर्लभ और रहस्यमय वस्तु है लेकिन उसके गम्भीर रहस्य से कुछ ही लोग परिचित हो पाते हैं। वास्तव में योग अंतर्जगत का द्वार है वे द्वार उपर्युक्त तीनों केंद्र हैं जिनमें प्रवेश कर लोक-लोकान्तर ही नहीं, बल्कि पूरे विश्वब्रह्माण्ड की भी यात्रा इसी स्थूल शरीर में रहते हुए की जा सकती है।


आगे है--'नाभि काम केंद्र भी है'





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