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5/05/2022

चारों धामों की यात्रा का धार्मिक महत्त्व क्यों?

   
                           
   

चारों धामों की यात्रा का धार्मिक महत्त्व क्यों ?


जिस प्रकार हिन्दू संस्कृति के चार वेद हैं, चार वर्ण हैं, चार दिशाएं हैं, ठीक उसी प्रकार चार धाम हैं। भारत की पवित्र भूमि में पूर्व में जगन्नाथ पुरी, पश्चिम में द्वारका पुरी, दक्षिण में रामेश्वरम् और उत्तर में बद्रीनाथ धाम स्थापित हैं। जगन्नाथ पुरी को अनेक वैष्णव संतों ने अलौकिक तीर्थ धाम माना है यहां पर महाप्रभु श्रीकृष्ण ने

अपने जीवन के कुछ दिन बिताए थे। ऐसा माना जाता है कि जगन्नाथ पुरी में सभी धर्मों के लोग एक साथ बैठकर भोजन करते हैं, जिससे तीर्थधाम करने वालों का पुण्य बढ़ता है। जगन्नाथ का शाब्दिक अर्व जगत के नाथ यानी भगवान् विष्णु । जगन्नाथ मंदिर में प्रमुख प्रतिमा विष्णु कृष्ण की है। साथ ही बलराम और सुभद्रा की मूर्तियां भी प्रतिष्ठित हैं। ये प्रतिमाएं चंदन की लकड़ी की बनी हुई हैं। कहा जाता है कि मुख्य मूर्ति में स्वयं ब्रह्माजी ने आंखें प्रदान की और भगवान् विष्णु की प्राणप्रतिष्ठा की। मूर्ति के भीतर एक अस्थि मंजूषा बताई जाती है, जिसे प्रति 12वें वर्ष में बदलकर नई मूर्ति में प्रतिष्ठित कर दिया जाता है। कहा जाता है कि ये अस्थि- अवशेष भगवान् कृष्ण के हैं। जगन्नाथ पुरी में मार्कण्डेय, चंदन, पार्वती तालाब, श्वेतगंगा और इंद्रद्युम्न नामक पंच तीर्थ हैं।


श्री जगन्नाथजी के महाप्रसाद की महिमा भुवन विख्यात है। इसे व्रत-पर्वादि के दिन भी बिना किसी छुआ-छूत दोष के ग्रहण करने का विधान है। यह भगवठासाद अन्न या पदार्थ नहीं होता, बल्कि चिन्मय तत्त्व है।


द्वारका पौराणिक, ऐतिहासिक एवं धार्मिक महत्त्व का स्थान है। कहा जाता है कि मथुरा छोड़ने के बाद भगवान् कृष्ण ने अपने भाई बलराम तथा यादवों के साथ द्वारका आकर अपनी नई राजधानी बनाई थी। आठवीं शताब्दी में यहां आदि शंकराचार्य ने सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए द्वारकापीठ की स्थापना की। तब से यह नगर भारत के चार धामों में गिना जाता है। द्वारकाधीश मंदिर के हरिगृह का निर्माण अनिरुद्ध के पुत्र वज्रनाथ ने अपने बाबा कृष्ण की स्मृति में कराया था। मंदिर के हरिगृह में भगवान् कृष्ण की एक प्रतिमा प्रतिष्ठित है। द्वारकापीठ मठ का यहां काफी धार्मिक महत्त्व बताया जाता है, क्योंकि हिंदुओं के चार धामों में से यह एक है। यहां कृष्ण की पटरानी रुक्मिणी का मंदिर स्थापत्य कला का अद्भुत नमूना है।


स्कंदपुराण प्रभासखंड में लिखा है कि द्वारका के प्रभाव से कीट, पतंगे, पशु-पक्षी तथा सर्प आदि योनियों में पड़े हुए समस्त पापी भी मुक्त हो जाते हैं, फिर जो प्रतिदिन द्वारका में रहते और जितेन्द्रिय होकर भगवान् श्रीकृष्ण की सेवा में उत्साहपूर्वक लगे रहते हैं, उनके विषय में तो कहना ही क्या है। द्वारका में रहने वाले समस्त प्राणियों को जो गति प्राप्त होती है, वह ऊर्ध्वरेता मुनियों को भी दुर्लभ है। द्वारकावासी का दर्शन और स्पर्श करके भी मनुष्य बड़े-बड़े पापों से मुक्त हो स्वर्गलोक में निवास करते हैं। वायु द्वारा उड़ाई गई द्वारका की रज पापियों को मुक्ति देने वाली कही गई है, फिर साक्षात् द्वारका की तो बात ही क्या। द्वारका में जो होम, जप, दान और तप किए जाते हैं, वे सब भगवान् श्रीकृष्ण के समीप कोटि गुना एवं अक्षय होते हैं।


रामेश्वरम् के संबंध में मान्यता है कि भगवान् श्रीराम जब लंका जीतकर लौटे, तो यहीं पर शिव के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट की थी। रामायण के अनुसार राक्षसों के विरुद्ध युद्ध में विजय के पूर्व भगवान् राम ने यहां स्नान कर शिव की आराधना की थी। कोतंडरमर मंदिर पर राक्षसराज रावण के भाई विभीषण ने भगवान् राम के समक्ष आत्मसमर्पण कर उनका संरक्षण प्राप्त किया था। धनुषकोटि मंदिर में राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान व विभीषण की मूर्तियां हैं। रामनाथ स्वामी मंदिर का गलियारा भारत के मंदिरों में सबसे बड़ा माना गया है। यह मंदिर वास्तुकला के उत्कृष्ट नमूनों से युक्त है।


द्वादश ज्योतिर्लिंगों में रामेश्वर की गणना की जाती है। स्कंदपुराण ब्रह्मखंड में लिखा है कि भगवान् श्रीराम द्वारा बंधवाए हुए सेतु के कारण रामेश्वर तभी तीर्थों तथा क्षेत्रों में उत्तम है। उस सेतु के दर्शन मात्र से संसार सागर से मुक्ति हो जाती है तथा भगवान् विष्णु एवं शिव में भक्ति तथा पुण्य की वृद्धि होती है। उसके कायिक, वाचिक व मानसिक कार्य भी सिद्ध हो जाते हैं, इसमें कोई संशय नहीं। सेतुबंध समस्त देवता रूप कहा गया है। सेतु, श्री रामेश्वर लिंग का चिंतन करने मात्र से मनुष्य के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं। सेतु की बालू में शयन करने से चिपकी बालू कणों के बराबर ब्रह्महत्याओं का नाश हो जाता है।


बदरीनाथ नर और नारायण पर्वतों के बीच ऋषिगंगा और अलकनंदा नदियों के संगम पर स्थित है।


महाभारत, स्कंदपुराण व अन्य पुराणों में बद्रीनाथ के सौंदर्य की चर्चा की गई है। बद्रीनाथ मंदिर में मुख्य मूर्ति भगवान् विष्णु की है। शालग्राम पत्थर पर बनी यह मूर्ति कला की दृष्टि से बेजोड़ है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यह मूर्ति सातवीं शताब्दी में शंकराचार्य ने एक कुंड से प्राप्त की थी। इसके सामने अलकनंदा नदी के तट पर गरम पानी का झरना है। इसे तप्त कुंड कहते हैं, जिसमें श्रद्धालु स्नान कर अत्यंत सुखद अनुभूति पाते हैं। भीम ने पांडवों को नदी पार कराने के लिए एक विशाल शिला को नदी में रखा था, जो यहां भीम शिला के नाम से जानी जाती है। कहा जाता है कि यहां की व्यास गुफा में महर्षि व्यास ने पुराणों की रचना की थी। गुफा के बाहर विशाल चट्टान किताब की भांति दिखाई देती है, जिसे व्यास पुस्तिका कहते हैं। यहां नारद कुंड और सूर्य कुंड नाम के गरम पानी के दो सरोवर भी हैं।


महाभारत में लिखा है कि अन्य तीर्थों में स्वधर्म का विधिपूर्वक पालन करते हुए मृत्यु होने पर मुक्ति होती है, लेकिन बद्रीक्षेत्र के तो दर्शनमात्र से ही मुक्ति मनुष्य के हाथ में आ जाती है। बद्री ही परमतीर्थ, तपोवन तथा साक्षात् परात्पर ब्रह्म है। वही जीवों के स्वामी परमेश्वर हैं, जिन्हें जानकर शोक, मोह, चिंता तुरंत मिट जाती है। मनुष्य कहीं से भी बद्री आश्रम का स्मरण करता रहे तो वह पुनरावृत्ति वर्जित श्रीवैष्णवधाम को प्राप्त होता है।





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