श्मशान की सिद्ध भैरवी ( भाग-05 )
परम श्रध्देय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अद्भुत अलौकिक अध्यात्म-ज्ञानधारा में पावन अवगाहन
पूज्यपाद गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन
तो आपको दूसरी शक्ति भी उपलब्ध होगी ?--मैंने स्वर्णा से पूछा।
मेरी बात सुनकर हँसने लगी स्वर्णा। फिर बोली--तुम तो बिलकुल बच्चों जैसी बात करते हो। जब साधक को सिद्धि या शक्ति प्राप्त हो जाती है तो दूसरी सिद्धि या शक्ति प्राप्त होने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं होती उसे। लेकिन प्रयास बराबर करते रहना चाहिए। अच्छा, अब बोलो तुम क्या चाहते हो ?
अब तक यह सब देख-सुन कर मैं स्वर्णा के व्यक्तित्व के प्रति अत्यधिक आकर्षित हो चुका था। मेरे मस्तिष्क में उस समय तरह-तरह की जिज्ञासाएँ उमड़-घुमड़ रही थीं। मन में तरह-तरह के विचारों के तूफ़ान उठ रहे थे। क्या अतीन्द्रिय शक्ति की सहायता से मनुष्य भूत, भविष्य और वर्तमान--तीनों कालों की घटनाओं और उनसे संबंधित दृश्यों को देख सकता है, जान-समझ सकता है अथवा बतला सकता है ?--मैंने प्रश्न किया।
क्यों नहीं ? जिसे अतीन्द्रिय शक्ति उपलब्ध है, उसके लिए यह अत्यन्त सरल है।
एकाएक मैंने पूछा--अच्छा, क्या आप अतीन्द्रिय शक्ति का कोई चमत्कार दिखा सकेंगी इस समय ?
क्या देखना चाहते हो ? बोलो।
मेरे एक मित्र हैं--नाम विपिन है, चार साल से गायब हैं वह, काफी खोजा गया, मगर कोई पता न चला उनका। क्या आप बता सकतीं हैं वह महाशय कहाँ हैं ?
स्वर्णा ने ध्यान की मुद्रा में आसन लगा कर थोड़ी देर के लिए आँखे बंद कर लीं, फिर उसी स्थिति में कहने लगीं--मैं तुम्हारे मित्र के तीनों काल बताउंगी। पहले भूतकाल सुनो। 18 जनवरी को सायंकाल तुम्हारा मित्र सिनेमा देखने के लिए कहकर घर से निकला, मगर सिनेमा गया नहीं। उसके पास उस समय दो हज़ार रूपये नगद और लगभग पांच हज़ार रुपयों के जेवर थे। वह एक लड़की के चक्कर में था। उसी को लेकर कराची चला गया। उस लड़की का नाम था--सावित्री। पूरे दो महीने कराची में रहने के बाद वे दोनों बम्बई चले गए। वहाँ उन्होंने शादी कर ली।
इतनी सारी बातें मुझे मालूम नहीं थीं। बाद में मैंने पता लगाया तो 18 जनवरी को सायंकाल विपिन के जाने तथा रुपयों और जेवर की बात सच निकली।
स्वर्णा ने आगे बतलाया--बाद में विपिन को धोखा देकर उसकी पत्नी किसी पारसी युवक के साथ गोवा चली गयी। उसकी बेवफाई से टूटा विपिन इस समय बम्बई में अकेला रह कर एक फ़िल्म स्टूडियो में नौकरी कर रहा है। वह घर आना चाहता है, मगर लाज और संकोचवश उसकी आने की हिम्मत नहीं हो रही है।
थोड़ा रुककर स्वर्णा ने आगे कहा--यह तो हुआ तुम्हारे मित्र का भूत और वर्तमान काल। अब भविष्य भी थोड़ा सुन लो। दीपावली के ठीक दो दिन पहले वह घर वापस लौट आएगा। अकेला नहीं आएगा वह, उसके साथ उसकी दूसरी पत्नी भी होगी।
कहने की आवश्यकता नहीं-- स्वर्णा की कही हुई ये सारी बातें अक्षरशः सच निकलीं।
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काले आकाश का बदन जलाती हुई बिजली चमकी। प्रकाश की एक रेखा आसमान के एक कोने से दूसरे कोने तक कांप गयी। गीली बरसाती हवा का तेज झोंका आया और ठंडी हवा का सैलाव कमरे के भीतर फ़ैल गया। कमरे में जलती लालटेन की पीली लौ सहसा बुझ गयी।
शराब की दोनों बोतलें खाली हो चुकीं थीं। स्वर्णा ने सुषुप्तिभरी दृष्टि से मेरी ओर देखा, फिर भर्राये स्वर में कहने लगी वह--अशरीरी अथवा सूक्ष्म शरीरधारी आत्माओं की सहायता से भी मनचाही वस्तुओं और पदार्थों को प्राप्त किया जा सकता है। इतना ही नहीं, उनके द्वारा भूत, भविष्य और वर्तमान की किसी भी घटना की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इसे तमोबल कहते हैं। विज्ञान-बल का ही एक अंग समझना होगा इसे। आन्तरिक-मानसिक शक्ति के साथ-साथ मंत्र-शक्ति का भी प्रयोग होता है। इस दिशा में सफलता प्राप्त करने के लिए योगी भी होना आवश्यक है। मन, प्राण और मन्त्र--तीनों की शक्ति, इच्छा में केंद्रित होनी चाहिए तभी अशरीरी आत्माओं से संपर्क स्थापित हो सकता है, वर्ना नहीं। तभी इच्छानुसार कार्य भी होता है और उनसे सहायता भी मिलती है हर दिशा में, मगर खतरा भी है साथ-साथ।
ये जो लोग पान, सुपाड़ी, लोंग, इलाइची अथवा फल-फूल, मिठाई, भभूत आदि दर्शकों के सामने हवा में हाथ लहराकर पैदा करते हैं--वह सब क्या है ?
मामूली प्रेत-लीला समझो। नेत्रबंध भी कह सकते हो उसे, मगर ऐसी सृष्टि में स्थायित्व नहीं होता। उसका उपयोग भी निरर्थक होता है। कोई फायदा नहीं। वासना और कामना लिए हुए जो लोग मरते हैं, वे ही प्रेत होते हैं। प्रेतात्मायें सूक्ष्म शरीरधारी नहीं, वासना शरीरधारी होती हैं। अपनी वासनाओं के अनुरूप स्वयं अपने शरीर की रचना कर लेती हैं वे।
ये सब सुनकर प्रेतों के सम्बन्ध के साथ और कुछ जानने की उत्सुकता जागृत हो गयी मेरे मन में। एक साथ कई प्रश्न कर डाले मैंने जिनके उत्तर में स्वर्णा ने बतलाया-- शरीर एक यंत्र के सिवाय और कुछ नहीं है। महत्वपूर्ण है 'आत्मा' और उसके बाद मूल्य है 'मन' का। आत्मा और मन --बस ये ही दो हैं महत्वपूर्ण।
क्या 'प्राण' का कोई प्रयोजन नहीं है ?--मैंने बीच में ही टोककर प्रश्न किया--क्या जीवन का उससे कोई सम्बन्ध नहीं है ?
आत्मा, मन और शरीर--ये तीनों जिस सूत्र में बंधते हैं और बंधकर जो जीवनी-शक्ति के रूप में प्रकट होते हैं, वही हैं--'प्राण'। साधारण लोगों के लिए प्राण का मूल्य है, मगर योगी और साधकों के लिए उसका न कोई महत्व है और न कोई मूल्य ही। इसलिए कि वे बिना प्राण के भी जीवित रह सकते हैं और आत्मा तथा मन से शरीर का सम्बन्ध बनाये रख सकते हैं। शरीर में प्राण से सम्बंधित महत्वपूर्ण केंद्र है--ह्रदय। आत्मा और मन से शरीर का प्राण-सम्बन्ध इसी केंद्र के द्वारा जुड़ता है। प्राण की आकर्षण-विकर्षण शक्ति से ह्रदय बराबर धड़कता रहता है जिसके फलस्वरूप शरीर से मन का और मन से आत्मा का तारतम्य बना रहता है। साधारण लोगों की भाषा में इसी का नाम 'जीवन' है। मगर योगीगण ह्रदय की धड़कन को बंद कर सकते हैं। बिना प्राण के भी जीवित रह सकते हैं वे और बिना प्राण के शरीर से मन और आत्मा का सम्बन्ध भी बनाये रख सकते हैं।
क्रमशः---
नोध : इस लेख में दी गई सभी बातें सामान्य जानकारी के लिए है हमारी पोस्ट इस लेख की कोई पुष्टि नहीं करता
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