सच्चा सूख क्या होता है
बुद्ध एक बार यात्रा करते थे। राह भटक गए। जंगल था। एक लकड़हारे से पूछा कि गांव कितनी दूर है? उसने कहा: बस पहुंचे जाते, दो मील समझो। दो मील गुजर गए, गांव का कोई पता नहीं। फिर एक घसियारिन से पूछा कि मां, कितनी दूर होगा गांव? उसने कहा: यही कोई दो मील। दो मील फिर निकल गए, लेकिन गांव का कोई पता नहीं। एक लकड़हारे से पूछा कि भाई गांव कितनी दूर होगा? उसने कहा: यही कोई दो मील।
आनंद से न रहा गया। बुद्ध का शिष्य था। उसने कहा कि भगवान, इन लोगों को कुछ होश है? पहला आदमी भी बोला दो मील, दूसरा भी बोला दो मील, यह तीसरा भी बोल रहा है। छह मील तो हम चल ही चुके।
बुद्ध ने कहा: तू यही गनीमत समझ, कि फासला बढ़ नहीं रहा है; दो मील का दो मील ही है। तीन भी हो सकता था, चार भी हो सकता था, छह भी हो सकता था। फिर सोच। ये भले लोग हैं।
ऐसी ही जिंदगी है। इतनी ही गनीमत है कि तुम्हारा और तुम्हारे सुख का फासला उतना ही रहता है जितना पहले दिन था। अंतिम दिन भी उतना ही रहता है—दो मील। बढ़ता नहीं, यही काफी गनीमत है। मगर सुख कभी मिलता नहीं। फिर आदमी जब बिलकुल थक जाता है तो सोचता है: मृत्यु के बाद स्वर्ग में मिलेगा, परलोक में मिलेगा। अगले जनम में मिलेगा; इस जनम में शुभ कर्म कर लिए, अब अगले जनम में सुख मिलेगा।
तुम मूढ़ता छोड़ोगे या नहीं छोड़ोगे? तुम अपनी मूढ़ता को फैलाए ही चले जाते हो। जीवन बीत जाता है, तो तुम मौत के पार रख लेते हो सुख को। मगर सदा आगे! अब यहां जगह भी नहीं है रखने की; आदमी मर रहा है, खाट पर पड़ा है, अब यहां कह भी नहीं सकता कि कल सुख मिलेगा, क्योंकि कल तो यहां होने वाला नहीं। आज का सूरज आखिरी सूरज है, कल सुबह नहीं उगेगा। तो वह कहता है: अगले जनम में मिलेगा। मगर मिलेगा जरूर! लेकर रहूंगा! इधर चूक गए, कोई हर्जा नहीं; कब तक चूकेंगे? कभी तो मिलेगा! इस तरह आदमी अपने सुख को आगे रखता जाता है।
सुख को आगे रखने की प्रक्रिया का नाम—संसार। संसार यह नहीं है जो तुम्हें दिखाई पड़ रहा है फैला हुआ। लोग कहते हैं कि हमने संसार छोड़ दिया।
एक वृद्ध संन्यासी कुछ दिन पहले आए थे। वे बोले कि मैंने बीस साल पहले संसार छोड़ दिया। मैंने उनसे पूछा: आनंदित हैं? उन्होंने कहा: खाक आनंदित! तो मैंने कहा: संसार छूट गया और आनंदित नहीं हैं? फिर कब आनंद होगा? तो संसार छूटा नहीं होगा।
उन्होंने कहा: आप कह क्या रहे हैं? पत्नी छोड़ दी, बच्चे छोड़ दिए, घर—दुकान, सब छोड़ दिया।
यह तो संसार है ही नहीं। इसको पकड़ने से सुख नहीं मिला था, इसको छोड़ने से भी सुख नहीं मिल सकता। पहले सोचते थे पकड़ने से मिलेगा; फिर सोचा कि छोड़ने से मिलेगा—लेकिन सुख सदा आगे रहा। कुछ करने से मिलेगा! बाद में मिलेगा! स्थगित होता रहा। अब ये बीस साल से राह देख रहे हैं कि पत्नी छोड़ दी, घर छोड़ दिया, दुकान छोड़ दी, अभी तक सुख नहीं मिला, अब धीरे—धीरे भीतर नाराज भी हो रहे होंगे परमात्मा पर, कि यह तो हद हो गई, यह तो धोखा हो गया। जो था, वह भी गया। हाथ कुछ आया नहीं। अब धीरे—धीरे नाराज हो रहे होंगे।
इसलिए अगर तुम संन्यासियों को नाराज देखो तो आश्चर्य मत करना। उनकी नाराजगी का कारण है। अगर तुम संन्यासियों को क्रोधी पाओ, तो आश्चर्य मत करना। दुर्वासा होना उनकी नियति है। वे क्रोधित न हों तो क्या करें? संसार, जिसको सोचते थे, वह भी गया; और कुछ बदलाहट नहीं हुई। हाथ, धन इत्यादि से खाली हो गए—और धन से भरे नहीं।
नहीं; न तो पत्नी में संसार है, न पति में संसार है, न धन में, न दुकान में, न बाजार में। संसार है तुम्हारी इस आशा में कि कल सुख मिलेगा। यह संसार का मनोविज्ञान है। यह उसका तत्व—शास्त्र है। सुख कल मिलेगा, यह भ्रांति जिस दिन छूट गई, फिर तुम्हें सुख मिलने से कोई रोक नहीं सकता। सुख तो है ही। चांदत्तारों से नजर वापस लौट आई। आस—पास देखने लगे। जरा इस घड़ी, इसी क्षण टटोलो: सुख नहीं है? यह वृक्षों में सन्नाटा, ये पक्षियों की आवाजें, ये सूरज की तुम पर उतरती किरणें! सुख और क्या है? सुख और क्या होगा? यह शांति, यह मौन, इतने शांत लोगों की मौजूदगी, यह शांति से भरा हुआ सरोवर—क्या सुख नहीं है? और सुख क्या होता है? यह मौन, यह सन्नाटा, यह सन्नाटे का संगीत, यह श्वासों का सरगम, यह हृदय की धड़कन—सब ठहरा है। जैसे ही तुम इस क्षण में जागे, सब ठहरा है। तरंग भी नहीं होती। लहर भी नहीं उठती। और क्या है? इससे ज्यादा की मांग ही गलत है। और जिसने ज्यादा मांगा वह संसार में गिर गया। और जिसने इसको भोगा, वह परमात्मा में उतरने लगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
If you have any doubts,please let me know