जानकी जयंती
जानकी जयंती अर्थात माता सीता की जयंती को फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाया जाता है।
देवी जानकी को अन्य कई नामों से भी पुकारते हैं। वैदेही, जानकी व मिथिला कुमारी नाम, तो पिता के नाम से सम्बंधित है। जबकि सीता का अर्थ है, जोती हुई भूमि। या हल के नोक को भी सीता कहा जाता है इस कारण भी उन्हें सिया या सीता कहते हैं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, वैशाख मास के शुक्लपक्ष की नवमी को, पुष्य नक्षत्र के मध्यान्ह में सीता जी का प्राकट्य हुआ। जब महाराजा जनक सन्तान - कामना हेतु यज्ञ के लिए स्वयं हल चलकर खेत जोत रहे थे, उसी समय हल की नोंक से कुछ टकराया। देखा गया तो धरती में से वह बालिका निकली।
राजा जनक ने बड़े ही प्यार से उन्हें अपनी पुत्री बनाया । इस दिन को जानकी - नवमी भी कहते हैं। अतः ऐसी मान्यता है कि जो भी इस दिन व्रत रखता है और विधि विधान से सियाराम की पूजा अर्चना करता है उसके सभी मनोरथ पूर्ण होते हैं। कहते हैं कि 16 दानों का भी फल प्राप्त होता है।
"श्री सीताराम नमो नमः" या "श्री सिताय नमो नमः" का जप करना चाहिए।
व्रत कथा सार - "बहुत पहले की बात है। मारवाड़ क्षेत्र में एक वेदवादी, धर्मरूढ़ ब्राह्मण रहता था। उनका नाम देवदत्त था तथा पत्नी का नाम शोभना था।
पत्नी बहुत रूपवान थी। ब्राह्मण जीविकोपार्जन के लिये गांव से बाहर चला गया था। पत्नी कुसंगति में पड़कर व्यभिचारिणी हो गई। पूरे गांव में थू थू होने लगी।
दुष्ट ब्राह्मणी ने पूरे गांव को ही जला डाला। मृत्यु के पश्चात उसे चाण्डालिनी का जन्म मिला। कुष्ठ रोग व अंधेपन से पीड़ित थी। भटकते हुए एक दिन वह कौशल नगर पहुंच गई। जो सामने मिला उससे "भूखी हूँ, भोजन दो" कहकर रो पड़ी।
संयोग से उस दिन वैशाख मास के शुक्लपक्ष की नवमी तिथि थी। उस दिन सभी ने उपवास धारण किया था। उस चाण्डालिनी को केवल जल और तुलसीदल नसीब हुआ।
कहते हैं कि वह भूख से मर गई। लेकिन जानकी नवमी व्रत का फल उसे प्राप्त हो गया। उसे मुक्ति मिली। कुछ दिन स्वर्ग में रहने के बाद, वह कामरूप देश के राजा जयसिंह की महारानी कामकला के रूप में विख्यात हुई। उसने देवालय बनवाये। राम जानकी मंदिर में उनकी प्रतिमाएं स्थापित करवाईं।
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