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1/11/2023

मायका और माँ ( खूबसूरत सच्ची कहानी है )

   
                           
   
मायका और माँ ( खूबसूरत सच्ची कहानी है ). 

माँ थीं तो मोहल्ले भर को मेरे आने का पता होता था 
माँ थीं तो बने होते थे राजमाह चावल पुदीने की चटनी 
माँ थीं तो बिलकुल बुरा नहीं लगता था 
बिस्तर में लेटे रहना , सुस्ताना , टी वी देखना , चाय पीना 
माँ थीं तो अपने साथ साथ मेरे लिए भी डाल लेती थीं आम का अचार साल भर के लिए 
ले लेती साल भर के लिए देसी चावल 
जब छोटे छोटे बच्चों के साथ जाती 
तो कहती 
भूल जाओ सब , आनंद करो , मस्ती करो 
सब मैं संभाल लूँगी 
मेरे घर आती तो सब बनेरों पे पड़े होते धुले हुए चादर खेस लिहाफ़ 
सारे मोहल्ले को पता होता माँ आईं हैं 
निहायत बुरे वक्तों में सीने में मेरा मुँह छुपा लेती 
और कहती 
मैं हूँ न 
बुरा सपना आता तो सुबह बस पकड़ आती 
देखती मैं ठीक हूँ तो शाम को लौट जातीं
हाँ , काफ़ी छुपाती थी मैं अपने दर्द उन से 
पर माँ की आँखें तो तस्वीर में भी भाँप जाती है दर्द 
गईं तो मेरा मायका भी साथ ले गईं
एक बार गई मैं तो बाहर वाले कमरे में बैठ घंटों रोती रही
किसी को ख़बर तक न पड़ी मेरे आने की 
फिर सालों साल उस शहर में क़दम पड़े ही नहीं 
वो रास्ते यूँ जैसे नाग फ़न फैलाए बैठे हों 
सोचा था , अब धुँधला पड़ने लगा है सब 
अब जाने लगी हूँ उस शहर 
ख़रीदारी भी कर लेती हूँ वहाँ 
माँ थीं तो ज़रूरी होता था शॉपिंग पे जाना 
नहीं तो पूछतीं
कोई बात है 
उदास हो क्या 
पैसे मुझ से ले लो 
कुछ बचा कर रखे हैं तुम्हारे बाबू जी से परे 
नहीं , पर कुछ भी धुँधला नहीं पड़ा है 
पालती मार कर बैठा था कहीं ज़िंदगी की व्यस्तता में 
कहीं एक शब्द पढ़ा 
तो ज़ार ज़ार फूट पड़ा सब 

कोई भी दर्द क्या मर पाता है कभी पूरी तरह 
यूँ तो सब ठीक है 
पर काश माँ को कोई दर्द न देती 
काश उनका दर्द बाँट लेती 
काश उनके लिए ढेरों सूट गहने ख़रीद पाती 
काश उन्हें घुमाने ले जा पाती 
काश उन्होंने कभी जो देखे थे ख़्वाब पूरे कर पाती 

पर यह काश भी तो ख़ुद माँ बन कर ही समझ आता है 
इतनी देर से क्यों समझ आता है ?

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