गुप्त नवरात्री मे पंचम एवं दस महाविद्या में एक देवी "छिन्नमस्तिका" साधना
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पौरिणीक कथा
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एक बार देवी पार्वती हिमालय भ्रमण कर रही थी उनके साथ उनकी दो सहचरियां जया और विजया भी थीं, हिमालय पर भ्रमण करते हुये वे हिमालय से दूर आ निकली, मार्ग में सुनदर मन्दाकिनी नदी कल कल करती हुई बह रही थी, जिसका साफ स्वच्छ जल दिखने पर देवी पार्वती के मन में स्नान की इच्छा हुई, उनहोंने जया विजया को अपनी मनशा बताती व उनको भी सनान करने को कहा, किन्तु वे दोनों भूखी थी, बोली देवी हमें भूख लगी है, हम स्नान नहीं कर सकती, तो देवी नें कहा ठीक है मैं स्नान करती हूँ तुम विश्राम कर लो, किन्तु सनान में देवी को अधिक समय लग गया, जया विजया नें पुनः देवी से कहा कि उनको कुछ खाने को चाहिए, देवी स्नान करती हुयी बोली कुच्छ देर में बाहर आ कर तुम्हें कुछ खाने को दूंगी, लेकिन थोड़ी ही देर में जया विजया नें फिर से खाने को कुछ माँगा, इस पर देवी नदी से बाहर आ गयी और अपने हाथों में उनहोंने एक दिव्य खडग प्रकट किया व उस खडग से उनहोंने अपना सर काट लिया, देवी के कटे गले से रुधिर की धारा बहने लगी तीन प्रमुख धाराएँ ऊपर उठती हुयी भूमि की और आई तो देवी नें कहा जया विजया तुम दोनों मेरे रक्त से अपनी भूख मिटा लो, ऐसा कहते ही दोनों देवियाँ पार्वती जी का रुधिर पान करने लगी व एक रक्त की धारा देवी नें स्वयं अपने ही मुख में ड़ाल दी और रुधिर पान करने लगी, देवी के ऐसे रूप को देख कर देवताओं में त्राहि त्राहि मच गयी, देवताओं नें देवी को प्रचंड चंड चंडिका कह कर संबोधित किया, ऋषियों नें कटे हुये सर के कारण देवी को नाम दिया छिन्नमस्ता, तब शिव नें कबंध शिव का रूप बना कर देवी को शांत किया, शिव के आग्रह पर पुनह: देवी ने सौम्य रूप बनाया, नाथ पंथ सहित बौद्ध मतावलम्बी भी देवी की उपासना करते हैं, भक्त को इनकी उपासना से भौतिक सुख संपदा वैभव की प्राप्ति, वाद विवाद में विजय, शत्रुओं पर जय, सम्मोहन शक्ति के साथ-साथ अलौकिक सम्पदाएँ प्राप्त होती है, इनकी सिद्धि हो जाने ओपर कुछ पाना शेष नहीं रह जाता,
दस महाविद्यायों में प्रचंड चंड नायिका के नाम से व बीररात्रि कह कर देवी को पूजा जाता है।
देवी के शिव को कबंध शिव के नाम से पूजा जाता है। छिन्नमस्ता देवी शत्रु नाश की सबसे बड़ी देवी हैं,भगवान् परशुराम नें इसी विद्या के प्रभाव से अपार बल अर्जित किया था।
शास्त्रों में देवी को ही प्राणतोषिनी कहा गया है। देवी की स्तुति से देवी की अमोघ कृपा प्राप्त होती है।
माँ का स्तुति मंत्र
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छिन्न्मस्ता करे वामे धार्यन्तीं स्व्मास्ताकम,
प्रसारितमुखिम भीमां लेलिहानाग्रजिव्हिकाम,
पिवंतीं रौधिरीं धारां निजकंठविनिर्गाताम,
विकीर्णकेशपाशान्श्च नाना पुष्प समन्विताम,
दक्षिणे च करे कर्त्री मुण्डमालाविभूषिताम,
दिगम्बरीं महाघोरां प्रत्यालीढ़पदे स्थिताम,
अस्थिमालाधरां देवीं नागयज्ञो पवीतिनिम,
डाकिनीवर्णिनीयुक्तां वामदक्षिणयोगत:।
गृहस्थ साधक को सदा ही देवी की सौम्य रूप में साधना पूजा करनी चाहिए। देवी योगमयी हैं ध्यान समाधी द्वारा भी इनको प्रसन्न किया जा सकता है। इडा पिंगला सहित स्वयं देवी सुषुम्ना नाड़ी हैं जो कुण्डलिनी का स्थान हैं। देवी के भक्त को मृत्यु भय नहीं रहता वो इच्छानुसार जन्म ले सकता है। देवी की मूर्ती पर रुद्राक्षनाग केसर व रक्त चन्दन चढाने से बड़ी से बड़ी बाधा भी नष्ट होती है
महाविद्या छिन्मस्ता के इन मन्त्रों से आधी व्यादी सहित बड़े से बड़े दुखों का नाश संभव है।
देवी माँ का स्वत: सिद्ध महामंत्र
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ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचिनिये ह्रीं ह्रीं फट स्वाहा।
इस मंत्र से काम्य प्रयोग भी संपन्न किये जाते हैं व देवी को पुष्प अत्यंत प्रिय हैं इसलिए केवल पुष्पों के होम से ही देवी कृपा कर देती है,आप भी मनोकामना के लिए यज्ञ कर सकते हैं,जैसे-
1. मालती के फूलों से होम करने पर बाक सिद्धि होती है व चंपा के फूलों से होम करने पर सुखों में बढ़ोतरी होती है
2. बेलपत्र के फूलों से होम करने पर लक्ष्मी प्राप्त होती है व बेल के फलों से हवन करने पर अभीष्ट सिद्धि होती है
3. सफेद कनेर के फूलों से होम करने पर रोगमुक्ति मिलती है तथा अल्पायु दोष नष्ट हो 100 साल आयु होती है
4. लाल कनेर के पुष्पों से होम करने पर बहुत से लोगों का आकर्षण होता है व बंधूक पुष्पों से होम करने पर भाग्य बृद्धि होती है
5. कमल के पुष्पों का गी के साथ होम करने से बड़ी से बड़ी बाधा भी रुक जाती है
6 .मल्लिका नाम के फूलों के होम से भीड़ को भी बश में किया जा सकता है व अशोक के पुष्पों से होम करने पर पुत्र प्राप्ति होती है
7 .महुए के पुष्पों से होम करने पर सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं व देवी प्रसन्न होती है
महाअंक-देवी द्वारा उतपन्न गणित का अंक जिसे स्वयं छिन्नमस्ता ही कहा जाता है वो देवी का महाअंक है -“4”
विशेष पूजा सामग्रियां एवं पूजा विधि
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मालती के फूल, सफेद कनेर के फूल, पीले पुष्प व पुष्पमालाएं चढ़ाएं केसर, पीले रंग से रंगे हुए अक्षत, देसी घी, सफेद तिल, धतूरा, जौ, सुपारी व पान चढ़ाएं, बादाम व सूखे फल प्रसाद रूप में अर्पित करें, सीपियाँ पूजन स्थान पर रखें, भोजपत्र पर ॐ ह्रीं ॐ लिख करा अर्पण करें, दूर्वा,गंगाजल, शहद, कपूर, रक्त चन्दन चढ़ाएं, संभव हो तो चंडी या ताम्बे के पात्रों का ही पूजन में प्रयोग करें।
पूजा के बाद खेचरी मुद्रा लगा कर ध्यान का अभ्यास करना चाहिए सभी चढ़ावे चढाते हुये देवी का ये मंत्र पढ़ें-
ॐ वीररात्रि स्वरूपिन्ये नम:
देवी के दो प्रमुख रूपों के दो महामंत्र
1)देवी प्रचंड चंडिका मंत्र-ऐं श्रीं क्लीं ह्रीं ऐं वज्र वैरोचिनिये ह्रीं ह्रीं फट स्वाहा
2)देवी रेणुका शाबरी मंत्र-ॐ श्रीं ह्रीं क्रौं ऐं
सभी मन्त्रों के जाप से पहले कबंध शिव का नाम लेना चाहिए तथा उनका ध्यान करना चाहिए
पूजा विधि (विविध कामनाओ अनुसार)
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शाम के समय प्रदोषकाल में पूजा घर में दक्षिण-पश्चिम मुखी होकर नीले रंग के आसन पर बैठ जाएं। अपने सामने लकड़ी के पट्टे पर नीला वस्त्र बिछाकर उस पर छिन्नमस्ता यंत्र स्थापित करें। दाएं हाथ में जल लेकर संकल्प करें तत्पश्चात हाथ जोड़कर छिन्नमस्ता देवी का ध्यान करें।
ध्यान: प्रचण्ड चण्डिकां वक्ष्ये सर्वकाम फलप्रदाम्। यस्या: स्मरण मात्रेण सदाशिवो भवेन्नर:।।
देवी छिन्नमस्ता की विभिन्न प्रकार से पूजा करें। सरसों के तेल में नील मिलाकर दीपक करें। हो सके तो देवी पर नीले फूल (मन्दाकिनी अथवा सदाबहार) चढ़ाएं। देवी पर सुरमे से तिलक करें। लोहबान से धूप करें और इत्र अर्पित करें। उड़द से बने मिष्ठान का भोग लगाएं। तत्पश्चात बाएं हाथ में काले नमक की डली लेकर दाएं हाथ से काले हकीक अथवा अष्टमुखी रुद्राक्ष माला अथवा लाजवर्त की माला से देवी के इस अदभूत मंत्र का यथासंभव जाप करें।
मंत्र: श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचनीयै हूं हूं फट स्वाहा: ।।
जाप पूरा होने के बाद काले नमक की डली को बरगद के नीचे गाड़ दें। बची हुई सामग्री को जल प्रवाह कर दें। इस साधना से शत्रुओं का तुरंत नाश होता है, रोजगार में सफलता मिलती है, नौकरी में प्रमोशन मिलती है तथा कोर्ट कचहरी वाद-विवाद व मुकदमों में निश्चित सफलता मिलती है। महाविद्या छिन्नमस्ता की साधना से जीवन की सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं।
छिन्नमस्ता मां छिन्नमस्तिका की उपासना से भौतिक वैभव की प्राप्ति, वाद विवाद में विजय, शत्रुओं पर जय, सम्मोहन शक्ति के साथ-साथ अलौकिक सम्पदाएं मिलती हैं। इस पविवर्तन शील जगत का अधिपति कबंध है और उसकी शक्ति छिन्नमस्ता है। इनका सिर कटा हुआ और इनके कबंध से रक्त की तीन धाराएं बह रही है। इनकी तीन आंखें हैं और ये मदन और रति पर आसीन है। देवी के गले में हड्डियों की माला तथा कंधे पर यज्ञोपवीत है। इसलिए शांत भाव से इनकी उपासना करने पर यह अपने शांत स्वरूप को प्रकट करती हैं। उग्र रूप में उपासना करने पर यह उग्र रूप में दर्शन देती हैं जिससे साधक के उच्चाटन होने का भय रहता है।माता का स्वरूप अतयंत गोपनीय है। चतुर्थ संध्याकाल में मां छिन्नमस्ता की उपासना से साधक को सरस्वती की सिद्ध प्राप्त हो जाती है। कृष्ण और रक्त गुणों की देवियां इनकी सहचरी हैं। पलास और बेलपत्रों से छिन्नमस्ता महाविद्या की सिद्धि की जाती है। इससे प्राप्त सिद्धियां मिलने से लेखन बुद्धि ज्ञान बढ़ जाता है। शरीर रोग मुक्त होताते हैं। सभी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष शत्रु परास्त होते हैं। यदि साधक योग, ध्यान और शास्त्रार्थ में साधक पारंगत होकर विख्यात हो जाता है।
भगवती छिन्नमस्ता का स्वरूप अत्यंत ही गोपनीय है। इसे कोई अधिकारी साधक ही जान सकता है। महाविद्याओं में इनका तीसरा स्थान है। ऐसा विधान है कि आधी रात अर्थात् चतुर्थ संध्याकाल में छिन्नमस्ता की उपासना से साधक को सरस्वती सिद्ध हो जाती हैं। शत्रु विजय, समूह स्तम्भन, राज्य प्राप्ति और दुर्लभ मोक्ष प्राप्ति के लिए छिन्नमस्ता की उपासना अमोघ है।
छिन्नमस्ता का आध्यात्मिक स्वरूप अत्यन्त महत्वपूर्ण है। छिन्न यज्ञशीर्ष की प्रतीक ये देवी श्वेतकमल पीठ पर खड़ी हैं। दिशाएं ही इनके वस्त्र हैं। इनकी नाभि में योनिचक्र है। कृष्ण (तम) और रक्त(रज) गुणों की देवियां इनकी सहचरियां हैं। ये अपना शीश काटकर भी जीवित हैं। यह अपने आप में पूर्ण अन्तर्मुखी साधना का संकेत है।
विद्वानों ने इस कथा में सिद्धि की चरम सीमा का निर्देश माना है। योगशास्त्र में तीन ग्रंथियां बतायी गयी हैं, जिनके भेदन के बाद योगी को पूर्ण सिद्धि प्राप्त होती है। इन्हें ब्रम्हाग्रन्थि, विष्णुग्रन्थि तथा रुद्रग्रन्थि कहा गया है। मूलाधार में ब्रम्हग्रन्थि, मणिपूर में विष्णुग्रन्थि तथा आज्ञाचक्र में रुद्रग्रन्थि का स्थान है। इन ग्रंथियों के भेदन से ही अद्वैतानन्द की प्राप्ति होती है। योगियों का ऐसा अनुभव है कि मणिपूर चक्र के नीचे की नाड़ियों में ही काम और रति का मूल है, उसी पर छिन्ना महाशक्ति आरुढ़ हैं, इसका ऊर्ध्व प्रवाह होने पर रुद्रग्रन्थि का भेदन होता है।छिन्नमस्ता का वज्र वैरोचनी नाम शाक्तों, बौद्धों तथा जैनों में समान रूप से प्रचलित है। देवी की दोनों सहचरियां रजोगुण तथा तमोगुण की प्रतीक हैं, कमल विश्वप्रपंच है और कामरति चिदानन्द की स्थूलवृत्ति है। बृहदारण्यक की अश्वशिर विद्या, शाक्तों की हयग्रीव विद्या तथा गाणपत्यों के छिन्नशीर्ष गणपति का रहस्य भी छिन्नमस्ता से ही संबंधित है। हिरण्यकशिपु, वैरोचन आदि छिन्नमस्ता के ही उपासक थे। इसीलिये इन्हें वज्र वैरोचनीया कहा गया है। वैरोचन अग्नि को कहते हैं। अग्नि के स्थान मणिपूर में छिन्नमस्ता का ध्यान किया जाता है और वज्रानाड़ी में इनका प्रवाह होने से इन्हें वज्र वैरोचनीया कहते हैं। श्रीभैरवतन्त्र में कहा गया है कि इनकी आराधना से साधक जीवभाव से मुक्त होकर शिवभाव को प्राप्त कर लेता है।
श्री महाविद्या छिन्नमस्ता महामंत्र
ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचिनिये ह्रीं ह्रीं फट स्वाहा ॥ एक दिन का साधना है। इस मंत्र को दस हजार जाप करे किँतु 21 माला जाप पुरे होते ही देवी अपना माया देखना आरंभ करती है।अगर मंत्र जाप के मध्य मेँ बिजली काड्क ने की आबाज सुनाई दे तो डरे नही,ईसका अर्थ है साधक के सारे कष्ट का नाश हुआ।मंत्र जाप पुरा करना है किसी भी किमत मेँ और आखीर मेँ देवी दर्शन देगी॥
छिन्नमस्ता साधना एक ऐसी साधना है, जिसको सम्पन्न कर सामान्य गृहस्थ भी योगी का पद प्राप्त कर सकता है। वायु वेग से शून्य के माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा सकता है। ज़मीन से उठ कर हवा में स्थिर हो सकता है, एक शरीर को कई शरीरों में बदल सकता है और अनेक ऐसी सिद्धियों का स्वामी बन सकता है, आश्चर्य की गणना में आती है।
इस साधना को गुप्त नवरात्री छिन्नमस्ता जयन्ती अथवा किसी भी मंगलवार से आरम्भ किया जा सकता है। यह साधना रात्रि काल में ही सम्पन्न की जाती है, अतः मन्त्र जाप रात्रि में ही किया जाए अर्थात यह साधना रात्रि को दस बजे आरम्भ करके प्रातः लगभग तीन या चार बजे तक समाप्त करनी चाहिए।
इस साधना को पूरा करने के लिए सवा लाख मन्त्र जाप सम्पन्न करना चाहिए और यह साधना ग्यारह या इक्कीस दिनों में पूरी होनी चाहिए।
रात्रि को लगभग दस बजे स्नान करके काली अथवा नीली धोती धारण कर लें। फिर साधना कक्ष में जाकर दक्षिण दिशा की ओर मुँह करके काले या नीले ऊनी आसन पर बैठ जाएं। अपने सामने किसी बाजोट पर काला अथवा नीला वस्त्र बिछाकर उस पर सद्गुरुदेवजी का चित्र या विग्रह और माँ भगवती छिन्नमस्ता का यन्त्र-चित्र स्थापित कर लें। इसके साथ ही गणपति और भैरव के प्रतीक रूप में दो सुपारी क्रमशः अक्षत एवं काले तिल की ढेरी पर स्थापित कर दें।
अब सबसे पहले साधक शुद्ध घी का दीपक प्रज्ज्वलित कर धूप-अगरबत्ती भी लगा दे। फिर सामान्य गुरुपूजन सम्पन्न करें तथा गुरुमन्त्र की कम से कम चार माला जाप करें। फिर सद्गुरुदेवजी से छिन्नमस्ता साधना सम्पन्न करने की अनुमति लें और उनसे साधना की निर्बाध पूर्णता और सफलता के लिए प्रार्थना करें।
इसके बाद साधक संक्षिप्त गणपति पूजन सम्पन्न करें और “ॐ वक्रतुण्डाय हुम्” मन्त्र का एक माला जाप करें। फिर भगवान गणपतिजी से साधना की निर्विघ्न पूर्णता और सफलता के लिए प्रार्थना करें।
तत्पश्चात साधक सामान्य भैरवपूजन सम्पन्न करें और“ॐ हूं क्रोधभैरवाय हूं फट्” मन्त्र का एक माला जाप करें। फिर भगवान क्रोध भैरवजी से साधना की निर्बाध पूर्णता और सफलता के लिए प्रार्थना करें।
इसके बाद साधना के पहले दिन साधक को संकल्प अवश्य लेना चाहिए। इसके लिए दाहिने हाथ में जल लेकर संकल्प लें कि “मैं अमुक नाम का साधक अमुक गौत्र का आज से श्री छिन्नमस्ता साधना का अनुष्ठान प्रारम्भ कर रहा हूँ। मैं नित्य 21 दिनों तक 60 माला मन्त्र जाप करूँगा। हे, माँ! आप मेरी साधना को स्वीकार कर मुझे इस मन्त्र की सिद्धि प्रदान करें और इसकी ऊर्जा को आप मेरे भीतर स्थापित कर दें।” ऐसा कह कर हाथ में लिया हुआ जल जमीन पर छोड़ देना चाहिए। इसके बाद प्रतिदिन संकल्प लेने की आवश्यकता नहीं है।
तदुपरान्त साधक माँ भगवती छिन्नमस्ता चित्र और यन्त्र का सामान्य पूजन करे। उस पर कुमकुम, अक्षत और पुष्प चढ़ावें। किसी मिष्ठान्न का भोग लगाएं। उसके सामने दीपक और लोबान धूप जला लें,फिर साधक दाहिने हाथ में जल लेकर निम्न विनियोग मन्त्र पढ़ें ---
विनियोग
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ॐ अस्य श्री शिरच्छिन्नामन्त्रस्य भैरव ऋषिः सम्राट् छन्दः श्री छिन्नमस्ता देवता ह्रींकारद्वयं बीजं स्वाहा शक्तिः मम् अभीष्ट कार्य सिध्यर्थे जपे विनियोगः
ऋष्यादिन्यास :
ॐ भैरव ऋषयै नमः शिरसि। (सिर को स्पर्श करें)
ॐ सम्राट् छन्दसे नमः मुखे। (मुख को स्पर्श करें)
ॐश्री छिन्नमस्ता देवतायै नमः हृदये(हृदय को स्पर्श करें)
ॐ ह्रीं ह्रीं बीजाय नमो गुह्ये। (गुह्य स्थान को स्पर्श करें)
ॐ स्वाहा शक्तये नमः पादयोः। (पैरों को स्पर्श करें)
ॐ ममाभीष्ट कार्य सिद्धयर्थये जपे विनियोगाय नमः सर्वांगे। (सभी अंगों को स्पर्श करें)
करन्यास
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ॐ आं खड्गाय स्वाहा अँगुष्ठयोः। (दोनों तर्जनी उंगलियों से दोनों अँगूठे को स्पर्श करें)
ॐ ईं सुखदगाय स्वाहा तर्जन्योः। (दोनों अँगूठों से दोनों तर्जनी उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ ऊं वज्राय स्वाहा मध्यमयोः। (दोनों अँगूठों से दोनों मध्यमा उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ ऐं पाशाय स्वाहा अनामिकयोः। (दोनों अँगूठों से दोनों अनामिका उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ औं अंकुशाय स्वाहा कनिष्ठयोः। (दोनों अँगूठों से दोनों कनिष्ठिका उंगलियों को स्पर्श करें)
ॐ अ: सुरक्ष रक्ष ह्रीं ह्रीं स्वाहा करतलकर पृष्ठयोः। (परस्पर दोनों हाथों को स्पर्श करें)
हृदयादिन्यास
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ॐ आं खड्गाय हृदयाय नमः स्वाह,(हृदय को स्पर्श करें)
ॐ ईं सुखदगाय शिरसे स्वाहा स्वाहा। (सिर को स्पर्श करें)
ॐ ऊं वज्राय शिखायै वषट् स्वाहा। (शिखा को स्पर्श करें)
ॐ ऐं पाशाय कवचाय हूं स्वाहा। (भुजाओं को स्पर्श करें)
ॐ औं अंकुशाय नेत्रत्रयाय वौषट् स्वाहा(नेत्रों को स्पर्श करें)ॐ अ: सुरक्ष रक्ष ह्रीं ह्रीं अस्त्राय फट् स्वाहा। (सिर से घूमाकर तीन बार ताली बजाएं)
व्यापक न्यास
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ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्रवेरोचनियै ह्रींह्रीं फट् स्वाहा मस्तकादि पादपर्यन्तम्।
ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्रवेरोचनियै ह्रीं ह्रीं फट् स्वाहा पादादि मस्तकान्तम्। इससे तीन बार न्यास करें।
इसके बाद साधक हाथ जोड़कर निम्न ध्यान मन्त्र से भगवती छिन्नमस्ता का ध्यान करें ---
ध्यान
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ॐ भास्वन्मण्डलमध्यगां निजशिरश्छिन्नं विकीर्णालकम्
स्फारास्यं प्रपिबद्गलात् स्वरुधिरं वामे करे बिभ्रतीम्।
याभासक्तरतिस्मरोपरिगतां सख्यौ निजे डाकिनी
वर्णिन्यौ परिदृश्य मोदकलितां श्रीछिन्नमस्तां भजे।।
इसके बाद साधक भगवती छिन्नमस्ता के मूलमन्त्र कारद्राक्ष माला से ६० माला जाप करें ---मन्त्र
ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं ऐं वज्र वैरोचनीयै ह्रीं ह्रीं फट् स्वाहा
मन्त्र जाप के उपरान्त साधक निम्न सन्दर्भ का उच्चारण करने के बाद एक आचमनी जल छोड़कर सम्पूर्ण जाप भगवती छिन्नमस्ता को समर्पित कर दें।
ॐ गुह्यातिगुह्य गोप्त्री त्वं गृहाणास्मत्कृतं जपं।
सिद्धिर्भवतु मे देवि! त्वत्प्रसादान्महेश्वर,
इस प्रकार यह साधना क्रम साधक नित्य 21 दिनों तक निरन्तर सम्पन्न करें। जब पूरे सवा लाख मन्त्र जाप हो जाएं, तब पलाश के पुष्प अथवा बिल्व के पुष्पों से दशांश हवन करें। ऐसा करने पर यह साधना सिद्ध हो जाती है।
साधना नियम
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1. ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करें।
2. एक समय फलाहार लें, अन्न लेना वर्जित है।
3. मन्त्र जाप समाप्ति के बाद उसी स्थान पर सो जाएं।
4. साधना काल में साधक अन्य कोई कार्य, नौकरी, व्यापार आदि न करे।
छिन्नमस्ता साधना सौम्य साधना है और आज के भौतिक युग में इस साधना की नितान्त आवश्यकता है। इस साधना के द्वारा साधक जहाँ पूर्ण भौतिक सुख प्राप्त कर सकता है, वहीं वह आध्यात्मिक क्षेत्र में भी पूर्णता प्राप्त करने में समर्थ होता है। साधक कई साधनाओं में स्वतः सफलता प्राप्त कर लेता है और इस साधना के द्वारा कई-कई जन्मों के पाप कटकर वह निर्मल हो जाता है। यह साधना अत्यधिक सरल, उपयोगी और आश्चर्यजनक सफलता देने में समर्थ है। आपकी साधना सफल हो और माँ भगवती छिन्नमस्ता का आपको आशीष प्राप्त हो। मैं सद्गुरुदेव भगवानजी से ऐसी ही प्रार्थना करता हूँ।
छिन्नमस्ता कवच
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साधकों को मां छिन्नमस्ता का जप करने से पहले कवच का पाठ अवश्य करना चाहिए। यह एक बहुत ही उच्चकोटि की एवं उग्र साधना है, इसलिए सर्वप्रथम किसी योग्य गुरू से दीक्षा अवश्य ग्रहण करें। किताबों से पढकर यह साधना करने का प्रयास कदापि न करें। जो साधक कुण्डलिनी जागरण में रूचि रखते हैं उन्हें छिन्नमस्ता साधना अवश्य करनी चाहिए। मां छिन्नमस्ता की साधना से योग की सिद्धि भी सरलता से मिल जाती है। बड़ी से बड़ी समस्या का समाधान इस साधना से सम्भव है। मां छिन्नमस्ता आप पर कृपा करें।
श्रीगणेशाय नमः।
देव्युवाच।
कथिताश्छिन्नमस्ताया या या विद्याः सुगोपिताः।
त्वया नाथेन जीवेश श्रुताश्चाधिगता मया॥ 1॥
इदानीं श्रोतुमिच्छामि कवचं सर्वसूचितम्।
त्रैलोक्यविजयं नाम कृपया कथ्यतां प्रभो॥2।।
भैरव उवाच।
श्रुणु वक्ष्यामि देवेशि सर्वदेवनमस्कृते।
त्रैलोक्यविजयं नाम कवचं सर्वमोहनम्॥ 3॥
सर्वविद्यामयं साक्षात्सुरासुर जयप्रदम्।
धारणात्पठनादीशस्त्रैलोक्यविजयी विभुः॥ 4॥
ब्रह्मा नारायणो रुद्रो धारणात्पठनाद्यतः।
कर्ता पाता च संहर्ता भुवनानां सुरेश्वरि॥ 5॥
न देयं परशिष्येभ्योऽभक्तेभ्योऽपि विशेषतः।
देयं शिष्याय भक्ताय प्राणेभ्योऽप्यधिकाय च॥ 6॥
देव्याश्च च्छिन्नमस्तायाः कवचस्य च भैरवः।
ऋषिस्तु स्याद्विराट् छन्दो देवता च्छिन्नमस्तका॥ 7॥
त्रैलोक्यविजये मुक्तौ विनियोगः प्रकीर्तितः।
हुंकारो मे शिरः पातु छिन्नमस्ता बलप्रदा॥ 8॥
ह्रां ह्रूं ऐं त्र्यक्षरी पातु भालं वक्त्रं दिगम्बरा।
श्रीं ह्रीं ह्रूं ऐं दृशौ पातु मुण्डं कर्त्रिधरापि सा॥ 9॥
सा विद्या प्रणवाद्यन्ता श्रुतियुग्मं सदाऽवतु।
वज्रवैरोचनीये हुं फट् स्वाहा च ध्रुवादिका॥ 10॥
घ्राणं पातु च्छिन्नमस्ता मुण्डकर्त्रिविधारिणी।
श्रीमायाकूर्चवाग्बीजै र्वज्रवैरोचनीय हूं॥ 11॥
हूं फट् स्वाहा महाविद्या षोडशी ब्रह्मरूपिणी।
स्वपार्श्वे वर्णिनी चासृग्धारां पाययती मुदा॥ 12॥
वदनं सर्वदा पातु च्छिन्नमस्ता स्वशक्तिका।
मुण्डकर्त्रिधरा रक्ता साधकाभीष्टदायिनी॥ 13॥
वर्णिनी डाकिनीयुक्ता सापि मामभितोऽवतु।
रामाद्या पातु जिह्वां च लज्जाद्या पातु कण्ठकम्॥ 14॥
कूर्चाद्या हृदयं पातु वागाद्या स्तनयुग्मकम्।
रमया पुटिता विद्या पार्श्वौ पातु सुरेश्र्वरी॥ 15॥
मायया पुटिता पातु नाभिदेशे दिगम्बरा।
कूर्चेण पुटिता देवी पृष्ठदेशे सदाऽवतु॥ 16॥
वाग्बीजपुटिता चैषा मध्यं पातु सशक्तिका।
ईश्वरी कूर्चवाग्बीजै र्वज्रवैरोचनीय हूं॥ 17॥
हूं फट् स्वाहा महाविद्या कोटिसूर्य्यसमप्रभा।
छिन्नमस्ता सदा पायादुरुयुग्मं सशक्तिका॥ 18॥
ह्रीं ह्रूं वर्णिनी जानुं श्रीं ह्रीं च डाकिनी पदम्।
सर्वविद्यास्थिता नित्या सर्वाङ्गं मे सदाऽवतु॥19॥
प्राच्यां पायादेकलिङ्गा योगिनी पावकेऽवतु।
डाकिनी दक्षिणे पातु श्रीमहाभैरवी च माम्॥20॥
नैरृत्यां सततं पातु भैरवी पश्चिमेऽवतु।
इन्द्राक्षी पातु वायव्येऽसिताङ्गी पातु चोत्तरे॥21॥
संहारिणी सदा पातु शिवकोणे सकर्त्रिका।
इत्यष्टशक्तयः पान्तु दिग्विदिक्षु सकर्त्रिकाः॥ 22॥
क्रीं क्रीं क्रीं पातु सा पूर्वं ह्रीं ह्रीं मां पातु पावके।
ह्रूं ह्रूं मां दक्षिणे पातु दक्षिणे कालिकाऽवतु॥ 23॥
क्रीं क्रीं क्रीं चैव नैरृत्यां ह्रीं ह्रीं च पश्चिमेऽवतु।
हूं हूं पातु मरुत्कोणे स्वाहा पातु सदोत्तरे॥ 24॥
महाकाली खड्गहस्ता रक्षःकोणे सदाऽवतु।
तारो माया वधूः कूर्चं फट्कारोऽयं महामनुः॥ 25॥
खड्गकर्त्रिधरा तारा चोर्ध्वदेशं सदाऽवतु।
ह्रीं स्त्रीं हूं फट् च पाताले मां पातु चैकजटा सती।
तारा तु सहिता खेऽव्यान्महानीलसरस्वती॥26॥
इति ते कथितं देव्याः कवचं मन्त्रविग्रहम्।
यद् धृत्वा पठनाद्भीमः क्रोधाख्यो भैरवः स्मृतः॥27॥
सुरासुर मुनीन्द्राणां कर्ता हर्ता भवेत्स्वयम्।
यस्याज्ञया मधुमती याति सा साधकालयम्॥28॥
भूतिन्याद्याश्च डाकिन्यो यक्षिण्याद्याश्च खेचराः।
आज्ञां गृह्णंति तास्तस्य कवचस्य प्रसादतः॥29॥
एतदेव परं ब्रह्मकवचं मन्मुखोदितम्।
देवीमभ्यर्च्य गन्धाद्यैर्मूलेनैव पठेत्सकृत्॥ 30॥
संवत्सरकृतायास्तु पूजायाः फलमाप्नुयात्।
भूर्जे विलिखितं चैतद् गुटिकां काञ्चनस्थिताम्॥31॥
धारयेद्दक्षिणे बाहौ कण्ठे वा यदि वान्यतः।
सर्वैश्वर्ययुतो भूत्वा त्रैलोक्यं वशमानयेत्॥ 32॥
तस्य गेहे वसेल्लक्ष्मीर्वाणी च वदनाम्बुजे।
ब्रह्मास्त्रादीनि शस्त्राणि तद्गात्रे यान्ति सौम्यताम्॥33॥
इदं कवचमज्ञात्वा यो भजेच्छिन्नमस्तकाम्।
सोऽपि शस्त्रप्रहारेण मृत्युमाप्नोति सत्वरम्॥34॥
॥ इति श्रीभैरवतन्त्रे भैरवभैरवीसंवादे
त्रैलोक्यविजयं नाम छिन्नमस्ताकवच।।
देवी का महायंत्र भी अति महत्त्वपूर्ण होता है। जिसके बिना साधना कभी पूर्ण नहीं होती इसलिए देवी के यन्त्र को जरूर स्थापित करे व पूजन करें।
यन्त्र पूजन की विधि
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पंचोपचार पूजन करें-धूप,दीप,फल,पुष्प,जल आदि चढ़ाएं।
ॐ कबंध शिवाय नम: मम यंत्रोद्दारय-द्दारय
कहते हुये पानी के 21 बार छीटे दें व पुष्प धूप अर्पित करें
देवी को प्रसन्न करने के लिए सह्त्रनाम त्रिलोक्य कवच आदि का पाठ शुभ माना गया है
यदि आप विधिवत पूजा पाठ नहीं कर सकते तो मूल मंत्र के साथ साथ नामावली का गायन करें
छिन्नमस्ता शतनाम का गायन करने से भी देवी की कृपा आप प्राप्त कर सकते हैं
छिन्नमस्ता शतनामावली
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प्रचंडचंडिका चड़ा चंडदैत्यविनाशिनी,
चामुंडा च सुचंडा च चपला चारुदेहिनी,
ल्लजिह्वा चलदरक्ता चारुचन्द्रनिभानना,
चकोराक्षी चंडनादा चंचला च मनोन्मदा,
देवी के कुछ इच्छा पूरक मंत्र
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1) देवी छिन्नमस्ता का शत्रु नाशक मंत्र
ॐ श्रीं ह्रीं ह्रीं वज्र वैरोचिनिये फट
लाल रंग के वस्त्र और पुष्प देवी को अ
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