श्मशान की सिद्ध भैरवी ( भाग--18 )
परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अद्भुत अलौकिक अध्यात्म-ज्ञानधारा में पावन अवगाहन
पूज्यपाद गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन
बोझिल स्वर में भट्टाचार्य महाशय ने आगे बतलाया--काकुली की तरह अन्य कन्याओं का रूप और यौवन जलकर भस्म हो गया इसी तरह उस कापालिक की साधना की अग्नि में। स्वर्णा को ही ले लीजिये...
उसकी उम्र कितनी समझते हैं आप ? कभी किसी को वृद्धा भिखारिन के रूप में , कभी किसी को पगली के रूप में तो कभी किसी को आकर्षक रूपसी तरुणी के रूप में दिखलायी पड़ती है वह। 'डाकिनी विद्या' के बल पर रूप बदलने में माहिर है वह, मगर उसकी सही उम्र और असली रूप क्या है ?--यह कोई नहीं जानता। पिछले 30-35 वर्षों से तो मैं ही देख रहा हूँ उसे, जैसे वह कालंजयी हो।
पश्चिम बंगाल के किसी इस्टेट की वह राजकुमारी थी। अगाध रूप और सौंदर्य था और था अकूत यौवन भी जिसने उस समय देखा, उसका कहना था कि साक्षात् 'कामदेव की रति' जैसी लगती थी स्वर्णा।
लेकिन देव-कन्याओं जैसे उसके रूप, यौवन एवं सौंदर्य पर शनि की वक्रदृष्टि पड़ गयी।
कामदेव जैसे किसी राजकुमार के बाहुपाश में आलिंगनबद्ध होने और उसकी अंकशायिनी बनने का उसका सुनहरा सपना तंत्र की शूली पर चढ़ गया जिसकी लाश अभी तक उसी शूली पर झूल रही है।
जानते हैं, उसके जीवन के अमृत-कलश में किसने विष घोला ? उसी प्रधान कापालिक ने। उसने उस पवित्र, सुगन्धित पुष्प को किसी देवता के चरणों पर अर्पित होने के पूर्व तामसिक साधना के नाम पर स्वार्थ की बलि-वेदी पर मसल डाला स्वर्णा को।
भट्टाचार्य महोदय के कहने का ढंग कुछ ऐसा था कि जैसे उन्होंने स्वयं सब कुछ अपनी आँखों से देखा हो।
बताने लगे कि स्वर्णा के मन में भी एक युवक की छवि बसी हुई थी। कौन था वह युवक ?
चन्दन नगर के राय बहादुर राधा मोहन गुहाराय का एकलौता बेटा। बड़ा ही होनहार और सुदर्शन युवक था वह। नाम तो उसका कुछ और ही था, पर प्यार से लोग उसे 'बकुल' पुकारते थे। स्वामी रामकृष्ण परमहंस को वह गुरु मानता था। रामबाड़ी में एक छोटा काली मंदिर था। उसी मंदिर में काली की पाषाण प्रतिमा के सम्मुख बकुल घंटों आँखें मूंदे ध्यान मग्न बैठा रहता था। स्वर्णा से असीम प्यार करता था बकुल। दोनों एक दूसरे को बहुत चाहते थे। कभी-कदा बकुल स्वर्णा से मिलने चला जाया करता था। तब पद्मा नदी के किनारे बैठकर घंटों प्रेमालाप करते दोनों और फिर रंगीन सपनों में खोये रहते। समय की भी सुध न रहती दोनों को।
स्वर्णा और बकुल के प्रेम-प्रसंग से अनजान नहीं थे राय बहादुर साहब। वह सब कुछ जानते-समझते थे। अतः शीघ्र ही उन दोनों को दाम्पत्य-सूत्र में बांध देना चाहते थे वह। लेकिन उनकी अभिलाषा पूर्ण नहीं हुई। पूर्ण होने से पूर्व ही नियति ने अपने चंगुल में दबोच लिया था उस असहाय को। उसी प्रधान कापालिक ने नष्ट कर दिया स्वर्णा का जीवन !
क्रमशः--
नोध : इस लेख में दी गई सभी बातें सामान्य जानकारी के लिए है हमारी पोस्ट इस लेख की कोई पुष्टि नहीं करता
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