श्मशान की सिद्ध भैरवी ( भाग--13 )
परम श्रद्धेय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अद्भुत अलौकिक अध्यात्म-ज्ञानधारा में पावन अवगाहन
पूज्यपाद गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन
सब कुछ देखने के बाद ऐसा प्रतीत होता था कि शायद कापालिक संप्रदाय के किसी उच्च कोटि के साधक की साधना-स्थली है वह। कमरे में कई युवा साधक और युवा भैरावियाँ भी थीं। भैरवियों की उम्र 18-20 वर्ष के भीतर ही थी। वे सभी उन्मत्त थीं। उनकी खुली हुई केश-राशि पीठ पर बिखरी थी। मस्तक पर लाल सिन्दूर का गोल टीका और गले में सर्प की हड्डियों की मालाएं थीं जो उनके उरोजों के ऊपर लोटती हुई नाभि तक झूल रही थीं। मैंने देखा--भैरवियों की आँखें गूलर की तरह लाल थीं और चेहरे तमतमाये हुए थे। निश्चय ही उन सबने आकण्ठ मदिरा-पान किया होगा, लेकिन साधना की आभा और तेज भी उनके चेहरों पर दमक रहा था।
जिस व्यक्ति ने झांक कर देखा था, वह शायद वहां का मुख्य साधक था। वह कमरे में चारों तरफ घूमता हुआ कभी झुककर किसी शव के खुले हुए मुख की ओर देखकर उसमें मदिरा उड़ेलता तो कभी संकेत से उन भैरवियों को कुछ समझाता। उसके एक हाथ में चमचमाता हुआ त्रिशूल और दूसरे हाथ में खप्पर था जिसमें मदिरा भरी हुई थी। उसे बीच-बीच में वह मुंह लगाकर पी लिया करता था।
कापालिक और शाक्त संप्रदाय के बारे में बहुत कुछ सुना और पढ़ा था, मगर जो कुछ सुना ओर पढ़ा था, उसे पहली बार साकार रूप में वहां होते देख रहा था। वहां का वातावरण निश्चय ही बड़ा रहस्यमय और भयंकर था, पर अभी तक वहां स्वर्णा नहीं दिखलायी पड़ी थी मुझे। मेरी आँखें बराबर उसी को खोज रही थीं।
मैं दरवाजे के पास ही खड़े होकर सब कुछ देख रहा था लेकिन मेरी ओर किसी का ध्यान नहीं था। वापस लौटने का विचार कर ही रहा था , उसी समय मेरी ऑंखें आश्चर्य से फ़ैल गयीं। मेरी दृष्टि स्वर्णा पर पड़ी। वह कब और किधर से कमरे में आई--समझ न सका। यदि वह दरवाज़े से होकर कमरे में जाती तो मुझे पता चल ही जाता।
स्वर्णा के साथ एक नवयुवक भी था जिसे देखते ही पहचान गया मैं। वह राम अवतार नाम का वही युवक था जिसकी लाश को जीवित किया था पगली ने। मगर स्वर्णा के साथ कैसे पहुंचा वह ? इसका मतलब निश्चय ही स्वर्णा और वह पगली एक दूसरे के अंतरंग होंगी। मुझे नहीं देखा स्वर्णा ने। सबसे ज्यादा आश्चर्य इस बात का हो रहा था कि स्वर्णा भी वहां पूर्णतया निर्वसन थी। आज तक मैंने उसके अनावृत रूप को नहीं देखा था। वह मुझे जलती हुई अग्नि-शिखा-सी लगी उस समय। कुछ क्षणों के लिए मैं अपने अस्तित्व को भूल गया। सांचे में ढली स्वर्णा की काया देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो रोम की किसी रूपसी युवती की पाषाण-प्रतिमा ही सजीव हो उठी हो उस पल।
नवयुवक राम अवतार अभी तक स्वर्णा के साथ ही था, तभी वह मुख्य साधक उसे खींचता हुआ एक खाली पड़ी वेदी तक ले गया और उसे लिटा दिया। युवक ने कोई विरोध नहीं किया। उसकी स्थिति यंत्रवत् थी उस समय। जैसे फिर से वह शव हो गया हो। उसके बाद जो कुछ मैंने देखा, वह पूर्णतया अविश्वसनीय दृश्य था।
प्रत्येक शव के ऊपर एक-एक भैरवी पद्मासन की मुद्रा में बैठी हुई थी। वह नव युवक जो स्वर्णा के साथ था अभी तक, फिर शव के रूप में परिवर्तित हो गया था और उसके ऊपर पद्मासन की मुद्रा में बैठी थी स्वर्णा। निश्चय ही यह सारी प्रक्रिया शव-साधना की थी। कभी तंत्र-ग्रन्थों में पढ़ा था शव-साधना के सम्बन्ध में। कापालिक और शाक्त संप्रदाय में सर्वोच्च साधना मानी जाती है--शव-साधना। इसमें शव 'आसन' का काम करता है।
वातावरण में गहरी नीरवता व्याप्त थी। शव पर पद्मासन की मुद्रा में ध्यानस्थ बैठी भैरवियों के चेहरे अलौकिक तेज से 'दप-दप' कर रहे थे। हवन-कुण्ड के सामने बैठा प्रधान साधक अग्नि में हवन-सामग्री छोड़ता जा रहा था मंत्रोच्चार के साथ और कभी-कभी वह भैरवियों की ओर भी अपना सिर घुमा- घुमा कर देख लेता था। उसका चेहरा उस समय क्रोध से लाल हो उठता था। समय पल-पल बढ़ता जा रहा था, लेकिन क्या मेरी शव-साधना की पूर्ण प्रक्रिया देख सकने की लालसा पूर्ण हुई ? क्या मैं शव-साधना के रहस्य को उस समय समझ सका ? नहीं, शायद मेरे भाग्य में ही नहीं था। प्रधान की कुपित दृष्टि मेरे ऊपर पड़ चुकी थी। मुझे देखते ही क्रोध से लाल हो उठा वह। हे भगवान ! अब क्या होगा ?
मैं कुछ सोचूं-समझूँ, उसके पहले ही उस दानव ने लपककर बगल में रखा खड्ग उठा लिया और मारने के लिए मेरी ओर दौड़ा। भय और आतंक से बुरा हाल हो रहा था मेरा। पलटकर भागना चाहा, मगर भाग न सका। दो-चार कदम बाद ही ओंधे मुंह गिर पड़ा मैं और उसी के साथ चेतनाशून्य हो गया। फिर कब तक रहा उस अवस्था में--यह बतला नहीं सकता। मगर जब चेतना लौटी, तो मैंने अपने-आपको एक सीलनभरी कोठरी में पड़ा पाया। निश्चय ही वह तहखाना था--समझते देर न लगी।
सिर में भयानक पीड़ा हो रही थी। बदन टूट रहा था। इसके आलावा भूख भी लगी थी। उस काल-कोठरी में यह भी पता नहीं चलता था कि कब दिन हुआ और कब रात हुई। क्या मैं अब यहाँ से कभी निकल पाउँगा ? या इसी तरह से घुट-घुट कर मरूँगा ? या फिर किसी के खड्ग की बलि चढ़ जाऊंगा ? काश ! स्वर्णा की खोज में न आया होता तो यह दुर्दशा नहीं होती मेरी। विवशता के मारे नेत्रों में आंसू आ गए।
क्रमशः--
नोध : इस लेख में दी गई सभी बातें सामान्य जानकारी के लिए है हमारी पोस्ट इस लेख की कोई पुष्टि नहीं करता
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