श्मशान की सिद्ध भैरवी ( भाग--06 )
परम श्रध्देय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अद्भुत अलौकिक अध्यात्म-ज्ञानधारा में पावन अवगाहन
पूज्यपाद गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन
तुमने स्वामी ब्रह्मयोगी का नाम सुना होगा। उन्होंने सन् 1960 ई. में कलकत्ता, रंगून, ऑक्सफ़ोर्ड आदि विश्वविद्यालयों में अपने ह्रदय की धड़कन बन्द करने के कई प्रयोग किये थे। वह 10 से 25 मिनट तक अपने ह्रदय की धड़कन को बन्द कर लेते थे। कलकत्ता विश्वविद्यालय में एक साथ 10 डॉक्टरों ने उनकी जाँच की थी क्योँकि ब्रह्मयोगी ने कहा था कि जब मेरे ह्रदय की गति बन्द हो जाये तो आप समझ लीजिये कि मैं मर गया या जीवित हूँ, इस पर दस्तखत कर दें। अतः 10 डॉक्टरों ने उनकी मृत्यु के प्रमाण-पत्र पर दस्तखत किये कि यह आदमी मर गया....मरने के सभी लक्षण पुरे हो गए।
लेकिन 25 मिनट के बाद ब्रह्मयोगी वापस लौट आये। ह्रदय फिर धड़कने लगा। साँस फिर चलने लगी। नाड़ी फिर दौड़ने लगी। आखिर ब्रह्मयोगी अपना मृत्यु प्रमाण- पत्र जब मोड़कर जेब में रखने लगे, तो उन डॉक्टरों ने विनम्रता से कहा--कृपा करके यह प्रमाण-पत्र हमें वापस कर दें। क्योंकि इसमें हम फंस सकते हैं। हमने लिख दिया कि आप मर चुके हैं।
जानते हो ब्रह्मयोगी ने क्या कहा ? वह बोले--इसका अर्थ यह हुआ कि तुम जिसे 'मृत्यु' कहते हो, वह मृत्यु नहीं है। ह्रदय की धड़कन बन्द होने से मरने का कोई गहरा सम्बन्ध नहीं है। हम सिर्फ इसलिए मर जाते हैं क्योंकि हमें यह पता नहीं है कि अब इस ह्रदय को फिर कैसे धड़काया जा सकता है।
निश्चय ही जिसे डा.या हम लोग मृत्यु कहते हैं, वास्तव में वह मृत्यु नहीं है। जहां तक हम सम्बंधित हैं, वह मृत्यु है क्योंकि हम अपने आपको बाहर से जानते-समझते हैं। फेफड़े से जानते हैं, ह्रदय से नहीं। शरीर से जानते हैं, आत्मा से नहीं। परिधि से जानते हैं, केंद्र से नहीं। परिधि मर जाती है और उसी को हम मृत्यु कह देते हैं। हमें केंद्र के अस्तित्व का कोई पता नहीं है। इसीलिए हम म्रत्यु मान लेते हैं। वह केवल मान्यता है। अगर हमें अपने केंद्र का पता चल जाये तो फिर कोई मृत्यु नहीं है। मृत्यु से बड़ा इस जगत में कोई असत्य नहीं है। लेकिन मृत्यु से बड़ा कोई सत्य भी नहीं जान पड़ता इस जगत में। मृत्यु बड़ा ही गहन सत्य है जिसे बाहर से समझना मुश्किल है। हम बाहर-बाहर जीते हैं और बाहर मृत्यु ही सब कुछ है। अगर भीतर जा सकें और भीतर का जीवन जी सकें तो जीवन ही सब कुछ है। बाहर है मृत्यु और भीतर है जीवन।
स्वर्णा पलभर रुककर बोली--अब मैं मुख्य विषय पर आती हूँ। मन बीच में है। उसके एक ओर शरीर है और दूसरी ओर है आत्मा, मगर एक बात का ख्याल रखना होगा कि आत्मा स्वतंत्र है, वह कभी भी परतंत्र नहीं हो सकती। मन परतंत्र है मगर वह प्रयास से स्वतंत्र हो सकता है। मन और शरीर दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं।--इस तथ्य को भी ध्यान में रखना होगा। बिना मन के, शरीर कुछ नहीं कर सकता। वह मृतक है बिना मन के। मन भी बिना शरीर के, कुछ कर सकने में असमर्थ है। जब आत्मा मन के साथ जुड़ती है तो शरीर अनिवार्य हो जाता है क्योंकि मन की वासनाओं की तृप्ति बिना शरीर के नहीं हो सकती। भूत-प्रेत, बाधा के मूल में यही कारण है। यदि प्रेत हैं तो वे मनुष्य के शरीर में क्यों प्रवेश करते है ?--यह समझने की बात है।
प्रेतात्मा वह है जिसका शरीर तो छूट गया है लेकिन उसका मन उससे अलग नहीं हुआ है। मन शरीर की मांग करता है। क्योंकि मन की सारी वासनाएं शरीर के द्वारा तृप्त हो सकती हैं, पूर्ण हो सकती हैं।
मरते समय सारी इन्द्रियां मन में लीन हो जाती हैं और मन लीन हो जाता है आत्मा में लेकिन जैसे ही शरीर में आत्मा प्रवेश करती है, वैसे ही शरीर में सारी इन्द्रियां प्रकट होकर अपना-अपना कार्य करने लग जाती हैं और मन उन इन्द्रियों के द्वारा हुए कार्यों को अनुभव करने लग जाता है। मन से शरीर का सम्बन्ध जुड़ते ही इन्द्रियां अपने आप प्रकट होती हैं। प्रेतात्माओं के मन तो वासनाओं से लवालव भरे होते हैं। लेकिन शरीर की तरह इन्द्रियां नहीं हैं। ये अभाव ही उनके दुःखों के कारण हैं और यही कारण हैं प्रेतों के जीवित व्यक्तियों के शरीर में प्रवेश करने के। प्रेत का जो मन है, वह उस व्यक्ति के शरीर और इन्द्रियों की सहायता से अपनी वासनाओं को तृप्त करने लग जाता है।
स्वर्णा पुनः पलभर रुकी, इसके बाद बताने लगी--प्रेत का मतलब केवल इतना ही है कि जिसके पास शरीर नहीं है, मन है मगर वह भी वासनाओं का भरा हुआ। सामान्यतया मरते ही व्यक्ति को दूसरा शरीर मिल जाता है। इधर मरे और उधर जन्मे। कोई अन्तर नहीं पड़ता। जीवन के प्रति जिसके मन में प्रबल लालसा है, उसका जन्म तत्काल सम्भव है। जन्म उस व्यक्ति का जल्दी नहीं होता और प्रेतयोनि भी उसी व्यक्ति को मिलती है, जिसका मन मरते समय आत्मा में लीन नहीं हो पाता है। ऐसी अवस्था में मन यदि बुरी और तामसिक वासनाओं से भरा है तो उस व्यक्ति को प्रेतयोनि मिलती है। यदि मन अच्छी और राजसी वासनाओं से भरा है तो उसे सूक्ष्म शरीर मिलता है। प्रेतात्मा और सूक्ष्मात्मा में बस यही अन्तर है। इसी प्रकार जिस मृत व्यक्ति का मन सात्विक गुणों, भावों और वासनाओं से भरा है और मरते समय वह आत्मा से अलग रह गया है, उसमें लीन नहीं हो पाया है तो उस मृत व्यक्ति की आत्मा को 'देवात्मा' कहा जाता है।
क्रमशः--
नोध : इस लेख में दी गई सभी बातें सामान्य जानकारी के लिए है हमारी पोस्ट इस लेख की कोई पुष्टि नहीं करता
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