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11/24/2021

Ghazal Shayari : ग़ज़ल शायरी

   
                           
   

Ghazal Shayari : ग़ज़ल शायरी




हर जनम में....


हर जनम में उसी की चाहत थे;

हम किसी और की अमानत थे;


उसकी आँखों में झिलमिलाती हुई;

हम ग़ज़ल की कोई अलामत थे;


तेरी चादर में तन समेट लिया;

हम कहाँ के दराज़क़ामत थे;


जैसे जंगल में आग लग जाये;

हम कभी इतने ख़ूबसूरत थे;


पास रहकर भी दूर-दूर रहे;

हम नये दौर की मोहब्बत थे;


इस ख़ुशी में मुझे ख़याल आया;

ग़म के दिन कितने ख़ूबसूरत थे


दिन में इन जुगनुओं से क्या लेना;

ये दिये रात की ज़रूरत थे।


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कोई बिजली इन ख़राबों में घटा रौशन करे;

ऐ अँधेरी बस्तियो! तुमको खुदा रौशन करे;


नन्हें होंठों पर खिलें मासूम लफ़्ज़ों के गुलाब;

और माथे पर कोई हर्फ़-ए-दुआ रौशन करे;


ज़र्द चेहरों पर भी चमके सुर्ख जज़्बों की धनक;

साँवले हाथों को भी रंग-ए-हिना रौशन करे;


एक लड़का शहर की रौनक़ में सब कुछ भूल जाए;

एक बुढ़िया रोज़ चौखट पर दिया रौशन करे;


ख़ैर अगर तुम से न जल पाएँ वफाओं के चिराग;

तुम बुझाना मत जो कोई दूसरा रौशन करे।



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तेरा चेहरा सुब्ह का तारा लगता है;

सुब्ह का तारा कितना प्यारा लगता है;


तुम से मिल कर इमली मीठी लगती है;

तुम से बिछड़ कर शहद भी खारा लगता है;


रात हमारे साथ तू जागा करता है;

चाँद बता तू कौन हमारा लगता है;


किस को खबर ये कितनी कयामत ढाता है;

ये लड़का जो इतना बेचारा लगता है;


तितली चमन में फूल से लिपटी रहती है;

फिर भी चमन में फूल कँवारा लगता है;


'कैफ' वो कल का 'कैफ' कहाँ है आज मियाँ;

ये तो कोई वक्त का मारा लगता है।


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नज़र फ़रेब-ए-कज़ा खा गई तो क्या होगा;

हयात मौत से टकरा गई तो क्या होगा;


नई सहर के बहुत लोग मुंतज़िर हैं मगर;

नई सहर भी कजला गई तो क्या होगा;


न रहनुमाओं की मजलिस में ले चलो मुझको;

मैं बे-अदब हूँ हँसी आ गई तो क्या होगा;


ग़म-ए-हयात से बेशक़ है ख़ुदकुशी आसाँ;

मगर जो मौत भी शर्मा गई तो क्या होगा;


शबाब-ए-लाला-ओ-गुल को पुकारनेवालों;

ख़िज़ाँ-सिरिश्त बहार आ गई तो क्या होगा;


ख़ुशी छीनी है तो ग़म का भी ऐतमाद न कर;

जो रूह ग़म से भी उकता गई तो क्या होगा।


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तेरे कमाल की हद...


तेरे कमाल की हद कब कोई बशर समझा;

उसी क़दर उसे हैरत है, जिस क़दर समझा;


कभी न बन्दे-क़बा खोल कर किया आराम;

ग़रीबख़ाने को तुमने न अपना घर समझा;


पयामे-वस्ल का मज़मूँ बहुत है पेचीदा;

कई तरह इसी मतलब को नामाबर समझा;


न खुल सका तेरी बातों का एक से मतलब;

मगर समझने को अपनी-सी हर बशर समझा। 


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मेरी रातों की राहत, दिन के इत्मिनान ले जाना;

तुम्हारे काम आ जायेगा, यह सामान ले जाना;


तुम्हारे बाद क्या रखना अना से वास्ता कोई;

तुम अपने साथ मेरा उम्र भर का मान ले जाना;


शिकस्ता के कुछ रेज़े पड़े हैं फर्श पर, चुन लो;

अगर तुम जोड़ सको तो यह गुलदान ले जाना;


तुम्हें ऐसे तो खाली हाथ रुखसत कर नहीं सकते;

पुरानी दोस्ती है, की कुछ पहचान ले जाना;


इरादा कर लिया है तुमने गर सचमुच बिछड़ने का;

तो फिर अपने यह सारे वादा-ओ-पैमान ले जाना;


अगर थोड़ी बहुत है, शायरी से उनको दिलचस्पी;

तो उनके सामने मेरा यह दीवान ले जाना।


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बुझी नज़र तो करिश्मे भी रोज़ो शब के गये;

कि अब तलक नही पलटे हैं लोग कब के गये;


करेगा कौन तेरी बेवफ़ाइयों का गिला;

यही है रस्मे ज़माना तो हम भी अब के गये;


मगर किसी ने हमें हमसफ़र नही जाना;

ये और बात कि हम साथ साथ सब के गये;


अब आये हो तो यहाँ क्या है देखने के लिए;

ये शहर कब से है वीरां वो लोग कब के गये;


गिरफ़्ता दिल थे मगर हौसला नहीं हारा;

गिरफ़्ता दिल है मगर हौंसले भी अब के गये;


तुम अपनी शम्ऐ-तमन्ना को रो रहे हो 'फ़राज़';

इन आँधियों में तो प्यारे चिराग सब के गये।


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भड़का रहे हैं आग...


भड़का रहे हैं आग लब-ए-नग़्मागार से हम;

ख़ामोश क्या रहेंगे ज़माने के डर से हम;


कुछ और बड़ गए अंधेरे तो क्या हुआ;

मायूस तो नहीं हैं तुलु-ए-सहर से हम;


ले दे के अपने पास फ़क़त एक नज़र तो है;

क्यों देखें ज़िंदगी को किसी की नज़र से हम


माना कि इस ज़मीं को न गुलज़ार कर सके;

कुछ ख़ार कम कर गए गुज़रे जिधर से हम।


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फिर उसके जाते ही दिल सुनसान हो कर रह गया;

अच्छा भला इक शहर वीरान हो कर रह गया;


हर नक्श बतल हो गया अब के दयार-ए-हिज्र में;

इक ज़ख्म गुज़रे वक्त की पहचान हो कर रह गया;


रुत ने मेरे चारों तरफ खींचें हिसार-ए-बाम-ओ-दर;

यह शहर फिर मेरे लिए ज़ान्दान हो कर रह गया;


कुछ दिन मुझे आवाज़ दी लोगों ने उस के नाम से;

फिर शहर भर में वो मेरी पहचान हो कर रह गया;


इक ख्वाब हो कर रह गई गुलशन से अपनी निस्बतें;

दिल रेज़ा रेज़ा कांच का गुलदान हो कर रह गया;


ख्वाहिश तो थी "साजिद" मुझे तशीर-ए-मेहर-ओ-माह की;

लेकिन फ़क़त मैं साहिब-ए-दीवान हो कर रह गया।


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ज़रा-सी देर में...


ज़रा-सी देर में दिलकश नज़ारा डूब जायेगा;

ये सूरज देखना सारे का सारा डूब जायेगा;

न जाने फिर भी क्यों साहिल पे तेरा नाम लिखते हैं;

हमें मालूम है इक दिन किनारा डूब जायेगा;


सफ़ीना हो के हो पत्थर, हैं हम अंज़ाम से वाक़िफ़;

तुम्हारा तैर जायेगा हमारा डूब जायेगा;


समन्दर के सफर में किस्मतें पहलू बदलती हैं;

अगर तिनके का होगा तो सहारा डूब जायेगा;


मिसालें दे रहे थे लोग जिसकी कल तलक हमको;

किसे मालूम था वो भी सितारा डूब जायेगा।


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