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11/26/2021

चाणक्य - अनमोल विचार ( भाग -1 )

   
                           
   

चाणक्य अनमोल विचार भाग-1 )




(1) ऋण, शत्रु  और रोग को समाप्त कर देना चाहिए।


2) वन की अग्नि चन्दन की लकड़ी को भी जला देती है अर्थात दुष्ट व्यक्ति किसी का भी अहित कर सकते है।


(3) शत्रु की दुर्बलता जानने तक उसे अपना मित्र बनाए रखें।


(4) सिंह भूखा होने पर भी तिनका नहीं खाता।


(5) एक ही देश के दो शत्रु परस्पर मित्र होते है।


(6) आपातकाल में स्नेह करने वाला ही मित्र होता है।


(7)  मित्रों के संग्रह से बल प्राप्त होता है।


(8) जो धैर्यवान नहीं है, उसका न वर्तमान है न भविष्य।


(9) संकट में बुद्धि ही काम आती है।


(10)  लोहे को लोहे से ही काटना चाहिए।


(11) यदि माता दुष्ट है तो उसे भी त्याग देना चाहिए।


(12) यदि स्वयं के हाथ में विष फ़ैल रहा है तो उसे काट देना चाहिए।


(13) सांप को दूध पिलाने से विष ही बढ़ता है, न की अमृत।


(14) एक बिगड़ैल गाय सौ कुत्तों से ज्यादा श्रेष्ठ है।  अर्थात एक विपरीत स्वाभाव

का परम हितैषी व्यक्ति, उन सौ लोगों से श्रेष्ठ है जो आपकी चापलूसी करते

है।


(16) कल के मोर से आज का कबूतर भला।  अर्थात संतोष सब बड़ा धन है।


(17) अन्न के सिवाय कोई दूसरा धन नहीं है।


(18)  भूख के समान कोई दूसरा शत्रु नहीं है।


(19). विद्या  ही निर्धन का धन है।


(20)  विद्या को चोर भी नहीं चुरा सकता।


(21)  शत्रु के गुण को भी ग्रहण करना चाहिए।


(22)  अपने स्थान पर बने रहने से ही मनुष्य पूजा जाता है।


(23)  सभी प्रकार के भय से बदनामी का भय सबसे बड़ा होता है।


(24)  किसी लक्ष्य की सिद्धि में कभी शत्रु का साथ न करें।


(25)  आलसी का न वर्तमान होता है, न भविष्य।


(26)  सोने के साथ मिलकर चांदी भी सोने जैसी दिखाई पड़ती है अर्थात सत्संग का प्रभाव मनुष्य पर अवश्य पड़ता है।


(27) ढेकुली नीचे सिर झुकाकर ही कुँए से जल निकालती है।  अर्थात कपटी या पापी व्यक्ति सदैव मधुर वचन बोलकर अपना काम निकालते है।


(28) सत्य भी यदि अनुचित है तो उसे नहीं कहना चाहिए।


(29) समय का ध्यान नहीं रखने वाला व्यक्ति अपने जीवन में निर्विघ्न नहीं रहता।


(30) जो जिस कार्ये में कुशल हो उसे उसी कार्ये में लगना  चाहिए।


(31)  दोषहीन कार्यों का होना दुर्लभ होता है।


(32) किसी भी कार्य में पल भर का भी विलम्ब न करें।


(33) चंचल चित वाले के कार्य कभी समाप्त नहीं होते।


(34) पहले निश्चय करिएँ, फिर कार्य आरम्भ करें।


(35) भाग्य पुरुषार्थी के पीछे चलता है।


(36). अर्थ, धर्म और कर्म का आधार है।


(37)  शत्रु दण्डनीति के ही योग्य है।


(38)  कठोर वाणी अग्निदाह से भी अधिक तीव्र दुःख पहुंचाती है।


(39)  व्यसनी व्यक्ति कभी सफल नहीं हो सकता।


(40)  शक्तिशाली शत्रु को कमजोर समझकर ही उस पर आक्रमण करे।


(41)  अपने से अधिक शक्तिशाली और समान बल वाले से शत्रुता न करे।


(42) मंत्रणा को गुप्त  रखने से ही कार्य सिद्ध होता है।


(43) योग्य सहायकों के बिना निर्णय करना बड़ा कठिन होता है।


(44). एक अकेला पहिया नहीं चला करता।


(45) अविनीत स्वामी के होने से तो स्वामी का न होना अच्छा है।


(46)  जिसकी आत्मा संयमित होती है, वही आत्मविजयी होता है।


(47)  स्वभाव का अतिक्रमण अत्यंत कठिन है।


(48)  धूर्त व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिए दूसरों की सेवा करते हैं।


(49)  कल की हज़ार कौड़ियों से आज की एक कौड़ी भली।  अर्थात संतोष सबसे बड़ा धन है।


(50)  दुष्ट स्त्री बुद्धिमान व्यक्ति के शरीर को भी निर्बल बना देती है।

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