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7/18/2021

वास्तविक गुरु ( vastvik guru)

   
                           
   

वास्तविक गुरु ( vastavik guru )




वास्तविक गुरु वह होता है, जिसमें केवल चेलेके कल्याणकी चिन्ता होती है। जिसके हृदयमें हमारे कल्याणकी चिन्ता ही नहीं है, वह हमारा गुरु कैसे हुआ? जो हृदयसे हमारा कल्याण चाहता है, वही हमारा वास्तविक गुरु है, चाहे हम उसको गुरु मानें या न मानें और वह गुरु बने या न बने।

 उसमें यह इच्छा नहीं होती कि मैं गुरु बन जाऊँ, दूसरे मेरेको गुरु मान लें, मेरे चेले बन जायँ। जिसके मनमें धनकी इच्छा होती है, वह धनदास होता है।

          ऐसे ही जिसके मनमें चेलेकी इच्छा होती है, वह चेलादास होता है। जिसके मनमें गुरु बननेकी इच्छा है, वह दूसरेका कल्याण नहीं कर सकता। जो चेलेसे रुपये चाहता है, वह गुरु नहीं होता, प्रत्युत पोता-चेला होता है। 

कारण कि चेलेके पास रुपये हैं तो उसका चेला हुआ रुपया और रुपयेका चेला हुआ गुरु तो वह गुरु वास्तवमें पोता-चेला ही हुआ ! विचार करें, जो आपसे कुछ भी चाहता है, वह क्या आपका गुरु हो सकता है? नहीं हो सकता।

 जो आपसे कुछ भी धन चाहता है, मान-बड़ाई चाहता है, आदर चाहता है, वह आपका चेला होता है, गुरु नहीं होता। सच्चे महात्माको दुनियाकी गरज नहीं होती, प्रत्युत दुनियाको ही उसकी गरज होती है। जिसको किसीकी भी गरज नहीं होती, वही वास्तविक गुरु होता है।

         कबीर  जोगी जगत गुरु, तजै  जगत की आस।

         जो जग की आसा करै तो जगत गुरु वह दास॥

          जो सच्चे सन्त-महात्मा होते हैं, उनको गुरु बननेका शौक नहीं होता, प्रत्युत दुनियाके उद्धारका शौक होता हैं। उनमें दुनियाके उद्धारकी स्वाभाविक सच्ची लगन होती है। मैं भी अच्छे सन्त-महात्माओंकी खोजमें रहा हूँ और मेरेको अच्छे सन्त-महात्मा मिले भी हैं। 

परन्तु उन्होंने कभी ऐसा नहीं कहा कि तुम चेला बन जाओ तो कल्याण हो जायगा। जिनको गुरु बननेका शौक है, वही ऐसा प्रचार करते हैं कि गुरु बनाना बहुत जरूरी है, बिना गुरुके मुक्ति नहीं होती, आदि-आदि।

 कोई वर्तमान मनुष्य ही गुरु होना चाहिये-ऐसा कोई विधान नहीं है। श्रीशुकदेवजी महाराज हजारों वर्ष पहले हुए थे, पर उन्होंने चरणदासजी महाराजको दीक्षा दी ! 

सच्चे शिष्यको गुरु अपने-आप दीक्षा देता है। कारण कि चेला सच्चा होता है तो उसके लिये गुरुको ढूँढ़नेकी आवश्यकता नहीं होती, प्रत्युत गुरु अपने-आप मिलता है। सच्ची लगनवालेको सच्चा महात्मा मिल जाता है-

                   जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू।

                   सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥

                         (मानस, बाल० २५९। ३)

          लोग तो गुरुको ढूंढते हैं, पर जो असली गुरु होते हैं, वे शिष्यको ढूंढते हैं। उनके भीतर विशेष दया होती है। जैसे, संसारमें माँका दर्जा सबसे ऊँचा है। माँ सबसे पहला गुरु है।

 बच्चा माँसे ही जन्म लेता है, माँका ही दूध पीता है, माँकी ही गोदीमें खेलता है, माँसे ही पलता है, माँके बिना बच्चा पैदा हो ही नहीं सकता, रह ही नहीं सकता, पल भी नहीं सकता। माँ तो वर्षोंतक बच्चेके बिना रही है। 

बच्चेके बिना माँको कोई बाधा नहीं लगी। इतना होते हुए भी माँका स्वभाव है कि वह आप तो भूखी रह जायगी, पर बच्चेको भूखा नहीं रहने देगी। वह खुद कष्ट उठाकर भी बच्चेका पालन करती है।

 ऐसे ही सच्चे गुरु होते हैं। वे जिसको शिष्यरूपसे स्वीकार कर लेते हैं, उसका उद्धार कर देते हैं। उनमें शिष्यका उद्धार करनेकी सामर्थ्य होती है। ऐसी बातें मेरी देखी हुई हैं।

          एक सन्त थे। वे दूसरेको शिष्य न मानकर मित्र ही मानते थे। उनके एक मित्रको कोई भयंकर बीमारी हो गयी तो वह घबरा गया। दवाइयोंसे वह ठीक नहीं हुआ। उन सन्तने उससे कहा कि तू अपनी बीमारी मेरेको दे दे

। वह बोला कि अपनी बीमारी आपको कैसे दे दें? सन्तने फिर कहा कि अब मैं कहूँ तो मना मत करना, आड़ मत लगाना; तू आधी बीमारी मेरेको दे दे।

 उनके मित्रने स्वीकार कर लिया तो उन सन्तने उसकी आधी बीमारी अपनेपर ले ली। फिर बिना दवा किये उसकी पूरी बीमारी मिट गयी। इस प्रकार जो समर्थ होते हैं, वे गुरु बन सकते हैं। परन्तु इतने समर्थ होनेपर भी उन्होंने उम्रभर किसीको चेला नहीं बनाया।

गुरु बनानेपर उसकी महिमा बताते हैं कि गुरु गोविन्दसे बढ़कर है। इसका नतीजा यह होता है कि चेला भगवान्के भजनमें न लगकर गुरुके ही भजनमें लग जाता है! यह बड़े अनर्थकी, नरकों में ले जानेवाली बात है! 

यह अच्छे सन्तकी बात है। उनको चेलोंने भगवान्से बढ़कर मानना शुरू कर दिया तो उन्होंने चेला बनाना छोड़ दिया और फिर उम्रभरमें कभी चेला बनाया ही नहीं। कारण कि चेले भगवान्को तो पकड़ते नहीं, गुरुको ही पकड़ लेते हैं।

 गुरुकी बात सुनकर मनुष्य भगवान्में लग जाय तो ठीक है, पर वह गुरुमें ही लग जाय तो बड़ी हानिकी बात है! चेलेको अपनेमें लगानेवाले कालनेमि अथवा कपटमुनि होते हैं, गुरु नहीं होते। गुरु वे होते हैं, जो चेलेको भगवान्में लगाते हैं। भगवान्के समान हमारा हित चाहनेवाला गुरु, पिता, माता, बन्धु, समर्थ आदि कोई नहीं है-

                    उमा राम सम हित जग माहीं। 

                    गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं॥

                      (मानस, किष्किंधा १२ । १)

          भगवान्की जगह अपनी पूजा करवाना पाखण्डियोंका काम है। जिसके भीतर शिष्य बनाने की इच्छा है, रुपयोंकी इच्छा है, मकान (आश्रम आदि) बनानेकी इच्छा है, मान-बड़ाईकी इच्छा है, अपनी प्रसिद्धिकी इच्छा है, उसके द्वारा दूसरेका कल्याण होना

तो दूर रहा, उसका अपना कल्याण भी नहीं हो सकता -

                    शिष शाखा सुत वितको तरसे, 

                    परम   तत्त्व  को  कैसे  परसे?

          उसके द्वारा लोगों की वही दुर्दशा होती है, जो कपटी मुनि के द्वारा राजा प्रतापभानुकी हुई थी (देखें—मानस, बाल० १५३-१७५)। कल्याण तो उनके संगसे होता है, जिनके भीतर सबका कल्याण करनेकी भावना है। 

दूसरेके कल्याणके सिवाय जिनके भीतर कोई इच्छा नहीं है। जो स्वयं इच्छारहित होता है, वही दूसरेको इच्छारहित कर सकता है। इच्छावालेके द्वारा ठगाई होती है, कल्याण नहीं होता।

यह सिद्धान्त है कि जो दूसरेको कमजोर बनाता है, वह खुद कमजोर होता है। जो दूसरेको समर्थ बनाता है, वह खुद समर्थ होता है। जो दूसरेको चेला बनाता है, वह समर्थ नहीं होता।

 जो गुरु होता है, वह दूसरेको भी गुरु ही बनाता है। भगवान् सबसे बड़े हैं, इसलिये वे कभी किसीको छोटा नहीं बनाते। जो भगवान्के चरणोंकी शरण हो जाता है, वह संसारमें बड़ा हो जाता है।

 भगवान् सबको अपना मित्र बनाते हैं, अपने समान बनाते हैं, किसीको अपना चेला नहीं बनाते। जैसे, निषादराज सिद्ध भक्त था, विभीषण साधक था और सुग्रीव भोगी था, पर भगवान् रामने तीनोंको ही अपना मित्र बनाया। 

अर्जुन तो अपनेको भगवान्का शिष्य मानते हैं-'शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्' (गीता २। ७), पर भगवान् अपनेको गुरु न मानकर मित्र ही मानते हैं-'भक्तोऽसि मे सखा चेति' (गीता ४।३), 'इष्टोऽसि' (गीता १८।६४) । वेदों में भी भगवान्को जीवका सखा बताया गया है- द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। (मुण्डक० ३। १ । १, श्वेताश्वतर० ४। ६) सुपर्णावेतौ सदृशौ सखायौ यदृच्छयैतौ कृतनोडौं च वृक्षे । (श्रीमद्भा० ११ । ११ । ६)

          '

सदा साथ रहनेवाले तथा परस्पर सखाभाव रखनेवाले दो पक्षी-जीवात्मा और परमात्मा एक ही वृक्ष-शरीरका आश्रय लेकर रहते हैं।'

जो खुद बड़ा होता है, वह दूसरेको भी बड़ा ही बनाता है। जो दूसरेको छोटा बनाता है, वह खुद छोटा होता है। जो वास्तवमें बड़ा होता है, उसको छोटा बननेमें लज्जा भी नहीं आती।

 क्षत्रियोंके समुदायमें, अठारह अक्षौहिणी सेनामें भगवान् घोड़े हाँकनेवाले बने। अर्जुनने कहा कि दोनों सेनाओंके बीचमें मेरा रथ खड़ा करो तो भगवान् शिष्यकी तरह अर्जुनकी आज्ञाका पालन करते हैं। 

ऐसे ही पाण्डवोंने यज्ञ किया तो उसमें सबसे पहले भगवान् श्रीकृष्णका पूजन किया गया। परन्तु उस यज्ञमें ब्राह्मणोंकी जूठी पत्तले उठानेका काम भी भगवान्ने किया। छोटा काम करने में भगवान को  लज्जा नहीं आती। 

गुरु-कृपा अथवा सन्त-कृपा का बहुत विशेष माहात्म्य है। भगवान् की कृपा से जीव को मानव शरीर मिलता है और गुरु-कृपा से भगवान् मिलते हैं। लोग समझते हैं कि हम गुरु बनायेंगे, तब वे कृपा करेंगे। परन्तु यह कोई महत्त्व की बात नहीं है। अपने-अपने बालकों का सब पालन करते हैं। कुतिया भी अपने बच्चों का पालन करती है। परन्तु सन्त-कृपा बहुत विलक्षण होती है। दूसरा शिष्य बने या न बने, उनसे प्रेम करे या वैर करे-इसको सन्त नहीं देखते। दीन-दु:खी को देखकर सन्त का हृदय द्रवित हो जाता हैं। तो इससे उसका काम हो जाता है। जगाई-मधाई प्रसिद्ध पापी थे और साधुओं से वैर रखते थे, पर चैतन्य महाप्रभु ने उन पर भी दया करके उनका उद्धार कर दिया।

सन्त सब पर कृपा करते हैं, पर परमात्मतत्त्व का जिज्ञासु ही उस कृपा को ग्रहण करता है; जैसे-प्यासा आदमी ही जल को ग्रहण करता है। वास्तव में अपने उद्धार की लगन जितनी तेज होती हैं, सत्य तत्त्व की जिज्ञासा जितनी अधिक होती है, उतना ही वह उस कृपा को अधिक ग्रहण करता है। सच्चे जिज्ञासु पर सन्त-कृपा अथवा गुरु-कृपा अपने-आप होती है। गुरु कृपा होने पर फिर कुछ बाकी नहीं रहता। परन्तु ऐसे गुरु बहुत दुर्लभ होते हैं।

पारस से लोहा सोना बन जाता है, पर उस सोने में यह ताकत नहीं होती कि दूसरे लोहे को भी सोना बना दे। परन्तु असली गुरु मिल जाय तो उसकी कृपा से चेला भी गुरु बन जाता है, महात्मा बन जाता है-


पारस में अरु संत में, बहुत अंतरौ जान।

वह लोहा कंचन करे, वह करै आपु समान॥


यह गुरुकृपा की ही विलक्षणता है! यह गुरुकृपा चार प्रकार से होती है-स्मरण से, दृष्टि से, शब्द से और स्पर्श से। जैसे कछवी रेत के भीतर अण्डा देती है, पर खुद पानी के भीतर रहती हुई उस अण्डे को याद करती रहती है तो उसके स्मरण से अण्डा पक जाता है, ऐसे ही गुरु के याद करने मात्र से शिष्य को ज्ञान हो जाता है-यह ‘स्मरण-दीक्षा' है। जैसे मछली जल में अपने अण्डे को थोड़ी-थोड़ी देर में देखती रहती है तो देखने मात्र से अण्डा पक जाता है, ऐसे ही गुरु की कृपा-दृष्टि से शिष्य को ज्ञान हो जाता है-यह 'दृष्टि-दीक्षा' है। जैसे कुररी पृथ्वी पर अण्डा देती है और आकाश में शब्द करती हुई घूमती रहती है तो उसके शब्द से अण्डा पक जाता है, ऐसे ही गुरु अपने शब्दों से शिष्य को ज्ञान करा देता है-यह 'शब्द-दीक्षा' है। जैसे मयूरी अपने अण्डे पर बैठी रहती है तो उसके स्पर्श से अण्डा पक जाता है, ऐसे ही गुरु के हाथ के स्पर्श से शिष्य को ज्ञान हो जाता है—यह 'स्पर्श-दीक्षा' है। ईश्वर की कृपा से मानव-शरीर मिलता है, जिसको पाकर जीव स्वर्ग अथवा नरक में भी जा सकता है तथा मुक्त भी हो सकता हैं। परन्तु गुरुकृपा या सन्तकृपा से मनुष्य को स्वर्ग अथवा नरक नहीं मिलते, केवल मुक्ति ही मिलती है। गुरु बनाने से ही गुरुकृपा होती है-ऐसा नहीं है। बनावटी गुरु से कल्याण नहीं होता। जो अच्छे सन्त-महात्मा होते हैं, वे चेला बनाने से ही कृपा करते हों-ऐसी बात नहीं है। वे स्वत: और स्वाभाविक कृपा करते हैं। सूर्य को कोई इष्ट मानेगा, तभी वह प्रकाश करेगा यह बात नहीं है। सूर्य तो स्वत: और स्वाभाविक प्रकाश करता है, उस प्रकाश को चाहे कोई काम में ले ले। ऐसे ही गुरु की, सन्त-महात्मा की कृपा स्वतः स्वाभाविक होती है। जो उनके सम्मुख हो जाता है, वह लाभ ले लेता है। जो सम्मुख नहीं होता, वह लाभ नहीं लेता। जैसे, वर्षा बरसती है तो उसके सामने पात्र रखने से वह जल से भर जाता है। परन्तु पात्र उलटा रख दें तो वह जल से नहीं भरता और सूखा रह जाता है। सन्तकृपा को ग्रहण करने वाला पात्र जैसा होता है, वैसा ही उसको लाभ होता है।


सतगुरु भूठा इन्द्र सम, कमी न राखी कोय।

वैसा ही फल नीपजै, जैसी भूमिका होय॥


वर्षा सब पर समान रूप से होती है, पर बीज जैसा होता है, वैसा ही फल पैदा होता है। इसी तरह भगवान् की और सन्त-महात्माओं की कृपा सब पर सदा समान रूप से रहती है। जो जैसा चाहे, लाभ उठा सकता है।

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