महाराणा प्रताप के छापामार युद्ध से मेवाड़ की पुन : स्थापना
१६वीं शताब्दी में मध्य एशिया से आयी साम्राज्य विस्तार की आंधी भारत में तेज गति से चली जिसमें भारतीय राजा महाराजा अपने स्थान से उखड़कर आंधी के रुख में बहने लगे। मेवाड़ के महाराणा प्रताप ने उस आंधी को चीरते हुए भारतीय संस्कृति के बीज संजोए रखे जिसके लिए उन्होंने अपने ५७ वर्षों के जीवन काल में से २५ वर्ष तक राणा रहते हुए संघर्ष किया एवं तथाकथित राजशाही सुविधाओं का उपयोग नहीं किया और सामन्ती युग में भी अपने देश व धर्म की रक्षा के लिए सच्चा लोकतांत्रिक नेतृत्व किया। वह समय रियासती व सामन्तीकाल अवश्य था परन्तु महाराणा प्रताप उस समय आम लोगों के लिए कीका राणा थे। जन भावनाओं के अनुरूप उनका आचरण था और प्रजा का उन पर अटूट विश्वास था। राजा और प्रजा का घनिष्ठ तालमेल रहा तो विशाल व शक्तिशाली मुगल राज्य का सम्राट महाराणा व उनके मेवाड़ राज्य को नहीं जीत पाया। अकबर की सेना पर एक हमला ऐसा किया कि मुगल मेवाड़ को छोड़ने के लिए विवश हो गए। इतिहासवेत्ताओं ने राणा के इस हमले को छापामार युद्ध बताकर इतिश्री कह दी।
१६वीं सदी के उत्तरार्द्ध में हुआ यह युद्ध महाराणा प्रताप व कुंवर अमरसिंह के संयुक्त नेतृत्व में लड़ा गया और शायद यह पहला अवसर था कि राजा व युवराज एक साथ एक ही युद्ध के मैदान में उतरे थे। इतिहास में यह दिवेर-छापली युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है। यह महाराणा के लिए निर्णायक विजय युद्ध था जो २६ अक्टूबर, १५८२ (विजयादशमी) को लड़ा गया। इस युद्ध के बारे में अब तक इतिहासकार एक मत हैं कि इसी युद्ध के परिणामस्वरूप अकबर की विशाल सेना के पांव मेवाड़ धरा से उखड़ गए। महाराणा ने कुछ भाग के अलावा पूरा मेवाड़ मुगलों से छीनकर चाण्डाल में राजधानी स्थापित की। युद्ध स्थल, युद्ध में खेत रहे, योद्धाओं के नाम, संख्या व युद्ध तिथि के बारे में कोई शोधकर्ता अलग-अलग मत प्रस्तुत कर सकते हैं परन्तु इस युद्ध के बाद दिल्ली-आगरा की तरफ से आने वाली आक्रमण रूपी आंधी ने तेज वेग से मेवाड़ में आने का प्रयास नहीं किया। इस मत का समर्थन अवश्य करेंगे। इसी युद्ध के परिणामस्वरूप राणा को हौसला मिला और मेवाड़जन व सहयोगी राजाओं में महाराणा के प्रति आदर बढ़ा। मुगल सेना में भय व्याप्त हुआ। महाराणा स्वतंत्र व स्वाभिमान के प्रतीक बन गए। मेवाड़ का गौरव स्थायी हो गया।
युद्ध वृत्तांत – हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप ने अरावली की पश्चिमी पर्वत श्रृंखलाओं को ही अपना सुरक्षित प्राकृतिक दुर्ग मानकर विचरण किया। आम जन से संपर्क कर यह विश्वास जागृत किया कि एकलिंगनाथ का दीवान दिल्ली-आगरा के सम्राट की अधीनता स्वीकार नहीं करेगा। जन मानस ने उन्हें भरपूर सहयोग दिया। महाराणा की अप्रत्यक्ष गतिविधि के कारण मेवाड़ के मैदानी भाग में मुख्य मुख्य ठिकानों पर अकबर ने कब्जा कर लिया परन्तु यह बात उसे खटक रही थी कि मेवाड़ के महाराणा ने प्रत्यक्ष रूप से अधीनता स्वीकार नहीं की। महाराणा को जिन्दा या मरा देखने के लिए तलाशी अभियान की योजना बनाकर अभियान दल का केन्द्र बदनोरा (मगरांचल) परगने के दिवेर क्षेत्र को चिह्नित कर अकबर ने अपने विश्वस्त सेनापतियों को नियुक्त कर एक छावनी स्थापित की। यह स्थान मेवाड़, मारवाड़, अजमेर के क्षेत्र में सैनिक सहायता पहुंचाने एवं प्राप्त करने के लिए सुगम था तो पश्चिम अरावली की घेराबंदी के लिए भी उपयुक्त था। इस छावनी के संबंध में मेवाड़ जन महाराणा को सूचना भी पहुंचा रहे थे। मेवाड़ धरा पर स्थापित इस महत्वपूर्ण छावनी को नष्ट करने के लिए महाराणा ने रावत-राजपूतों के सहयोग से अति गोपनीय योजना बनाई। अपने अवैतनिक गुप्त सैनिकों से छावनी की घेराबंदी कर दी जिसकी भनक मुगल सेना को नहीं लग पाई।
विजयादशमी की पूर्व रात्रि में छावनी से दक्षिण पश्चिम की पहाड़ियों से सांकेतिक ध्वनि कर मुगल सेना व सेनापतियों की नींद हराम कर दी। भोर होते ही शंख, नगाड़ों की ध्वनि से युद्ध घोष कर महाराणा ने छावनी पर आक्रमण कर दिया, घमासान शुरू हुआ। तलवार, बर्छी, भाला रुधिर से स्नान करते हुए धरती को सींचने लगे। रुण्ड मुण्ड धरा पर लुढ़कने लगे। तेजी से बढ़ रहे मुगल सेनापति को महाराणा ने अपनी तलवार से दो टूक कर दिया जिसे धरती पर गिरता देख मुगल सेना में खलबली मच गई। पहाड़ी भाग की तरफ बढ़ने के बजाय मुगल सेना ने मैदानी भाग की तरफ मोर्चा लेने का आह्वान किया। मुगल सेना उल्टे पांव उत्तर दिशा की तरफ बढ़ने लगी। घाटी से होकर उतरने के लिए सैनिक सिकुड़ते हुए घाटी में उतरे, मुहाने पर कुंवर अमरसिंह अपने सहयोगी रावत-राजपूत सैनिकों के साथ मोर्चा लिए हुए थे कि मुगल सेना मैदानी भाग में नहीं फैले। कुंवर ने अपने सैनिक टुकड़ी से आक्रमण कर दिया।
मुगल सेना ऐसी घेराबंदी में आ गई कि उसके उत्तर दिशा में कुंवर अमरसिंह, दक्षिण में महाराणा प्रताप, पूर्व में ऊंची पहाड़ी, पश्चिम में गहरी खाई सभी तरफ से महाकाल का बुलावा था। महाराणा व कुंवर के नेतृत्व में स्वतंत्रता के पुजारी महाराणा के सैनिक मुगल सेना पर काल बन कर बरस पड़े। दोहपर ढलते ढलते मुगल सेना का पूर्ण संहार कर दिया। इस संग्राम में महाराणा को पूर्णतः निर्णायक विजय प्राप्त हुई। महाराणा की सेना के बीच असंख्य अनाम सैनिक खेत रहे। यहां मिली सफलता की सूचना मेवाड़ में दावानल की तरह फैल गई एवं इसके बाद जहां भी महाराणा ने आक्रमण किया सफलता ही मिली।
स्मारक — इस युद्ध में खेत रहे मुख्य योद्धाओं की छतरियां व आम सैनिकों की समाधियों के खण्डहर, अवशेष ८-१० किलोमीटर क्षेत्र में फैले दिखाई देते हैं। पिछले कुछ वर्षों में इस युद्ध के प्रतीक स्वरूप एक ऊंची चोटी (मेवाड़ का मथारा) पर विजय स्मारक व तलहटी में (राता खेत) युद्ध स्मारक बने हैं। इस निर्णायक युध्द को विदेशी इतिहासकारों ने मैराथन ऑफ मेवाड़, स्वदेशी इतिहासकारों ने दिवेर घाटी और स्थानीय लोगों ने राणा कड़ा घाटी कहकर पहचान बताई है।
इस क्षेत्र में मिली गौरवशाली निर्णायक विजय से अकबर की साम्राज्य विस्तार की नीति को धक्का लगा और वह महाराणा व मेवाड़ को अधीन करने का सपना पूरा नहीं कर सका। महाराणा ने यह युद्ध परंपरागत सैनिक टुकड़ियों के जमाव की शैली से हटकर जनसहयोग से लड़ा जिसे छापामार प्रणाली का युद्ध कहा गया। छापामार कार्यवाहियां आज भी होती हैं जो एक रहस्य व तैयारी के साथ होती हैं जिसकी भनक छापे से पूर्व नहीं लगती है। इसी प्रकार की रहस्यपूर्ण तैयारी से युद्ध करके सोहलवीं सदी में राणा ने मेवाड़ को मुगल साम्राज्य में विलय होने से रोक दिया।
स्त्रोत- “महाराणा प्रताप और सोहलवीं शताब्दी का मेवाड़ (पृष्ठ सं.- २०३- २०५)"
लेखक- इतिहासकार श्री चंदनसिंह जी खाँखावत, ठि.- छापली।
┄┄┅┅━━═۞═━━┅┅┄
जय माँ भवानी__________
जय राजपूताना__________
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
If you have any doubts,please let me know