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8/05/2022

पार्वती द्वारा शिव का दान

   
                           
   

पार्वती द्वारा शिव का दान


एक श्रेष्ठ पुत्र की प्राप्ति हेतु भगवान शिव से आज्ञा लेकर पार्वती ने एक वर्ष तक चलने वाले पुण्यक व्रत का समापन किया| 

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व्रत की समाप्ति पर पुरोहित सनत्कुमार ने देवी पार्वती से कहा – “सुव्रते! मुझे दक्षिण चाहिए|”

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पार्वती ने मुंहमांगी दक्षिणा देने का वचन दिया| फिर क्या था, पुरोहित बने सनत्कुमार ने अस्वाभाविक दक्षिणा की याचना की – “देवी! इस व्रत में दक्षिणा स्वरूप मुझे अपने पति को दीजिए|”

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यह सुनते ही देवी पार्वती पर जैसे वज्रपात हुआ| वे व्याकुल होकर विलाप करती हुई मुर्च्छित हो गईं| 

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पार्वती को मुर्च्छित देखकर ब्रह्मा, विष्णु और मुनियों को हंसी आ गई| उन्होंने पार्वती को समझाने के लिए भगवान शिव को भेजा|

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पार्वती की मूर्च्छा टूटने पर शिव ने उन्हें समझाया – “देवी! देवकार्य, पितृकार्य या नित्य नैमित्तिक जो भी कार्य दक्षिणा से रहित होता है, निष्फल हो जाता है| 

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उस कर्म से दाता कालसूत्र नामक नरक में गिरता है| उसके बाद वह दीन होकर शत्रुओं से पीड़ित होता है| 

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ब्राह्मण को संकल्प की हुई दक्षिणा उस समय न देने से वह बढ़कर कई गुनी हो जाती है|

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भगवान विष्णु और ब्रह्मा ने पार्वती से धर्मरक्षा के लिए अनुरोध किया| धर्म ने भी समझाया| 

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देवताओं ने कहा| मुनियों ने भी दक्षिणा देने की प्रेरणा दी| फिर भी पार्वती चुपचाप रहीं|

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तब सनत्कुमार ने कहा – “शिवे! या तो आप मुझे दक्षिणा में अपने पति को प्रदान कीजिए या अपने दीर्घकालीन कठोर तप का फल भी त्याग दीजिए| 

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इस महान कर्म की दक्षिणा न मिलने पर मैं इस दुर्लभ कठोर व्रत का फल ही नहीं, आपके समस्त कर्मों का फल भी प्राप्त कर लूंगा|

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उद्विग्न होकर पार्वती ने कहा – “पति से वंचित हो जाने वाले कर्म से क्या लाभ? दक्षिणा देने तथा धर्म और पुत्र की प्राप्ति से मेरा क्या हित होगा? 

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पृथ्वी देवी की उपेक्षा कर वृक्ष की पूजा करने से क्या प्राप्त हो सकेगा? साध्वी स्त्रियों के लिए पति सौ पुत्रों के समान होता है| 

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ऐसी स्थिति में यदि व्रत में अपने पति की ही दक्षिणा दे दी जाए तो पुत्र से क्या लाभ? 

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यह सत्य है कि पुत्र पति का ही अंश होता है, लेकिन उसका एकमात्र मूल तो पति ही होता है| मूल धन के नष्ट होने पर समस्त व्यापार ही विनष्ट हो जाता है|”

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उसी समय आकाश में देवताओं और ऋषियों ने एक रत्ननिर्मित रथ देखा जो पार्षदों से घिरा था| 

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उस रथ से श्री नारायण उतरकर देवताओं के सम्मुख उपस्थित हुए| उन श्री नारायण को ब्रह्मा, विष्णु और शिव ने रत्न सिंहासन पर बैठाकर उन्हें प्रणाम किया और हाथ जोड़कर गद्गद कंठ से स्तुति की|

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वहां का सारा वृत्तांत जानकर श्री नारायण ने कहा – “शिवप्रिया पार्वती का यह व्रत लोक शिक्षा के लिए है, अपने लिए नहीं, क्योंकि ये तो स्वयं समस्त व्रतों एव तपस्याओं का फल प्रदान करने वाली हैं| इनकी माया से ही चराचर जगत मोहित है|” 

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फिर, उन्होंने पार्वती को संबोधित कर कहा – “शिवे! इस समय तुम महादेव जो की दक्षिणा में देकर अपना व्रत पूर्ण कर लो| फिर, समुचित मूल्य देकर अपने जीवन धन को वापस ले लेना| 

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गौओं की भांति भी विष्णु के शरीर में हैं, अत: तुम ब्राहमण को गौमूल्य प्रदान कर अपने पति को लौटा लेना|” यह कहकर वे अंतर्धान हो गए|

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तब पार्वती प्रसन्न मन से अपने प्राण सर्वस्व को दक्षिणा में देने के लिए तैयार हो गईं| उन्होंने हवन की पूर्णाहुति की और अपने जीवननाथ शिव को दक्षिणा रूप में दे दिया| 

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इसके बाद उन्होंने पुरोहित सनत्कुमार से निवेदन किया – “विप्रवर! गौ का मूल्य मेरे पति के बराबर है| मैं आपको अत्यंत सुंदर एक लाख गौएं प्रदान करूंगी| 

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इसके बदले में आप मेरे जीवन सर्वस्व को लौटा दें| प्राणनाथ के मिल जाने पर मैं पुन: ब्राह्मणों को विपुल दक्षिणाएं प्रदान करूंगी|”

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तब सनत्कुमार ने पार्वती से कहा – “देवी! मैं ब्राह्मण हूं| मैं एक लाख गौएं लेकर क्या करूंगा? इस दुर्लभ रत्न के सामने एक लाख गौओं की क्या तुलना? 

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मैं इन्हें साथ में लेकर त्रिलोक में भ्रमण करूंगा| उस समय समस्त बालक इन्हें देखकर प्रसन्नतापूर्वक ताली बजा-बजाकर अट्टहास करेंगे|” कहने के साथ ही सनत्कुमार ने भगवान शिव को अपने पास बैठा लिया|

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यह सुनकर पार्वती जलहीन मछली की भांति छटपटाने लगीं| उन्होंने मन ही मन सोचा – ‘कैसा दुर्भाग्य है मेरा कि मुझे न तो अभीष्ट देव का ही दर्शन हुआ और न ही व्रत का फल प्राप्त हो सका|’ 

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अधीर होकर वे अपने प्राण त्यागने के लिए प्रस्तुत हो गईं|

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अकस्मात उसी समय आकाश में तेज समूह प्रकट हुआ| 

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उस तेज समूह को देखकर पार्वती ने उससे अपने ऊपर दया करने को कहा और उस महँ तेजोराशि के मध्य विश्वमोहन श्री कृष्ण-स्वरूप का दर्शन किया| 

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ऐसे भुवनमोहन अनूप रूप को देखकर भगवती पार्वती उसी के सदृश पुत्र की कामना करने लगीं और उसी क्षण उन्हें वह वर भी प्राप्त हो गया| तदनंतर वह तेज वहीं तिरोहत हो गया|

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तब देवताओं ने ब्रह्मपुत्र सनत्कुमार को समझाया| सनत्कुमार ने दिगंबर शिव को उनकी प्राणेश्वरी पार्वती को लौटा दिया|





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