विवाहित स्त्रियों के कर्तव्य
विवाहित स्त्री के लिये पतिव्रतधर्म के समान कुछ भी नहीं है, इसलिये उसे मनसा-वाचा-कर्मणा पति के सेवा परायण होना चाहिये।
स्त्री के लिये पति परायणता ही मुख्य धर्म है। इसके सिवा अन्य सब धर्म गौण हैं।
महर्षि मनु ने स्पष्ट लिखा है कि स्त्रियों को पति की आज्ञा के बिना यज्ञ, व्रत, उपवास आदि कुछ भी न करने चाहिये।
स्त्री केवल पति की सेवा-शुश्रुषा से ही उत्तम गति पाती है एवं स्वर्ग लोक में देवता लोग भी उसकी महिमा गाते हैं। जो स्त्री पति की आज्ञा के बिना व्रत, उपवास आदि करती है, वह अपने पति की आयु को हरती है और स्वयं नरक में जाती है।
इसलिये पति की आज्ञा के बिना यज्ञ, दान, तीर्थ, व्रत आदि भी नहीं करने चाहिये, दूसरे लौकिक कर्मो की तो बात ही क्या?
स्त्री के लिये पति ही तीर्थ है, पति ही व्रत है, पति ही देवता एवं परम पूजनीय गुरु है।
ऐसा होते हुए भी जो स्त्रियाँ अपने पति की आज्ञा के बिना दूसरे को गुरु बनाती हैं, वे घोर नरक को प्राप्त होती हैं।
आज कल बहुत-से धूर्त लोग साधु, महन्त और भक्तों के वेष में 'बिना गुरु मुक्ति नहीं होती'-ऐसा भ्रम फैला कर भोली-भाली स्त्रियों को मुक्ति का झूठा प्रलोभन देकर उनके धन और सतीत्व का हरण करते हैं और घोर नरक के भागी बनते हैं।
ऐसे धूर्त-ठगों से माताओं और बहनों को खूब सावधान रहना चाहिये।
ऐसे पुरुषों का मुख देखना भी धर्म नहीं है।
मनु आदि शास्त्र कारों ने स्त्रियों की मुक्ति तो केवल पाति व्रत से ही बतलायी है।
गोस्वामी तुलसीदासजी भी कहते हैं-
एकइ धर्म एक व्रत नेमा।
कारयँ बचन मन पति पद प्रेमा॥
बिनु श्रम नारि परम गति लहई।
पतिब्रत धर्म छाड़ि छल गहई॥
वही स्त्री पतिव्रता है, जो अपने मन से पति का हित-चिन्तन करती है, वाणी से सत्य, प्रिय और हितकारी वचन बोलती है, शरीर से उसकी सेवा एवं आज्ञा का पालन करती है।
जो पतिव्रता होती है, वह अपने पति की इच्छा के विरुद्ध कुछ भी आचरण नहीं करती।
वह स्त्री पति सहित उत्तम गति को प्राप्त होती है और उसी को लोग साध्वी कहते हैं।
स्त्रियों के लिये इस लोक और परलोक में पति ही नित्य सुख का देने वाला है।
इसलिये स्त्रियों को किंचिन्मात्र भी पति के प्रतिकूल आचरण कभी नहीं करना चाहिये।
जो नारी ऐसा करती है, यानी पति की इच्छा और आज्ञा के विरुद्ध चलती है, उसको इस लोक में निन्दा और मरने पर नीच गति की प्राप्ति होती है।
पति प्रतिकूल जनम जहँ जाई।
बिधवा होड पाइ तरुनाई॥
इस प्रकार पति की इच्छा के विरुद्ध चलने वाली की यह गति लिखी है।
फिर जो नारी दूसरे पुरुषों के साथ रमण करती है, उसकी घोर दुर्गति होती है, इसमें तो कहना ही क्या है ?
पति बंचक परपति रति करई।
रौरव नरक कल्प सत परई॥
अत: स्त्रियों को जाग्रत् की तो बात ही क्या, स्वप्न में भी परपुरुष का चिन्तन नहीं करना चाहिये वही उत्तम पतिव्रता है, जिसके मन में ऐसा भाव है-
उत्तम के अस बस मन माहीं।
सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं॥
पति यदि कामी हो, शील एवं गुणों से रहित हो तो भी साध्वी यानी पतिव्रता को उसे ईश्वर के समान मानकर उसकी सदा सेवा-शुश्रुषा करनी चाहिये-
विशीलः कामवृत्तो वा गुणैर्वा परिवर्जितः।
उपचर्यः स्त्रिया साध्व्या सततं देववत्पति:॥
अपमान तो अपने पति का कभी नहीं करना चाहिये; क्योंकि जो नारी अपने पति का अपमान करती है, वह परलोक में जाकर महान् दुःखों को भोगती है।
बृद्ध रोगबस जड़ धनहीना।
अंध बधिर क्रोधी अति दीना॥
ऐसेहु पति कर किएँ अपमाना।
नारि पाव जमपुर दुख नाना॥
साध्वी स्त्रियों को पुरुषों और स्त्रियों के जो सामान्य धर्म बतलाये हैं, उनका पालन करना चाहिये। पतिव्रत-धर्म के रहस्य को जानने वाली स्त्रियों को अपने पति से बड़े सास, ससुर आदि की बड़े आदर के साथ सेवा-पूजा और आज्ञा पालन करनी चाहिये; क्योंकि वे पति के भी पति हैं।
पति व्रत धर्म के आदर्श स्वरूप सीता, सावित्री आदि ने ऐसा ही किया है।
जब सावित्री अपने पति के साथ वन में गयी, तब पति की आज्ञा होने पर भी वह सास-ससुर की आज्ञा लेकर ही गयी थी।
श्री सीता जी भी श्री राम चन्द्र जी के साथ माता कौसल्या से आज्ञा, शिक्षा और आशीर्वाद लेकर ही गयी थीं।
साध्वी स्त्री को उचित है कि अपने लड़के लड़कियों को आचरण एवं वाणी द्वारा उत्तम शिक्षा दें । माता-पिता जो आचरण करते हैं, बालकों पर उनका विशेष असर पड़ता है।
अत: स्त्रियों को झूठ-कपट आदि दुराचार एवं काम- क्रोध आदि दुर्गुणों का सर्वथा त्याग करके उत्तम आचरण करने चाहिये।
बहुत-सी स्त्रियाँ लड़कियों को 'राँड़' और लड़कों को 'तू मर जा' 'तेरा सत्यानाश हो' इत्यादि कटु और दुर्वचन बोलती हैं, एवं उनको भुलाने के लिये 'मैं तुझे अमुक चीज मँगवा दूँगी' इत्यादि झूठा विश्वास दिलाती हैं और 'बिल्ली आयी' 'हाऊ आया' इत्यादि का झूठा भय दिखाती हैं।
इससे बहुत नुकसान होता है, अतएव ऐसी बातों से स्त्रियों को बचना चाहिये।
बालक का चित्त कोमल होता है, उसमें ये बातें सहज ही जम जाती हैं और वह झूठ बोलना, धोखा देना आदि सीख जाता है, एवं अत्यन्त भीरु और दीन बन जाता है।
बालकों के मन में वीरता, धीरता और गम्भीरता उत्पन्न हो, ऐसे ओज और तेज भरे हुए सच्चे वचनों द्वारा उनको आदेश देना चाहिये।
उनमें बुद्धि और ज्ञान की उत्पत्ति के लिये सत्-शास्त्र की शिक्षा देनी चाहिये।
बालकों को गाली आदि नहीं देनी चाहिये; क्योंकि गाली देना उनको गाली सिखाना है।
अश्लील, गंदे-कड़वे अपशब्दों का प्रयोग भी नहीं करना चाहिये। संग का बहुत असर पड़ता है। पशु-पक्षी भी संग के प्रभाव से सुशिक्षित और कुशिक्षित हो जाते हैं।
सुना जाता है कि मण्डनमिश्र के द्वार पर रहने वाले पक्षी भी शास्त्रवचनों का उच्चारण किया करते थे। देखा जाता है कि गाली बकने वालों के पास रहने वाले पक्षी भी गाली बका करते हैं।
अत: सदा सत्य, प्रिय, सुन्दर और मधुर हितकर वचन ही बहुत प्रेम से, धीमे स्वर से और शान्ति से बोलने चाहिये। बालकों के सम्मुख पति के साथ हँसी- मजाक एवं एक शब्या पर सोना बैठना कभी नहीं करना चाहिये। जो स्त्रियाँ ऐसा करती हैं, वे अपने बालकों को व्यभिचार की शिक्षा देती हैं।
पर पुरुष का दर्शन, स्पर्श, एकान्त-वास एवं उसके चित्र का भी चिन्तन नहीं करना चाहिये।
लोभ, मोह, शोक, हिंसा, दम्भ, पाखण्ड आदि से सदा बचकर रहना चाहिये और उत्तम गुण एवं आचरणों के लिये गीता, रामायण, भागवत, महाभारत एवं सती- साध्वी स्त्रियों के चरित्र पढ़ने का अभ्यास रखना चाहिये और उनके अनुसार ही बालकों को शिक्षा देनी चाहिये।
बच्चों को खिलाने-पिलाने इत्यादि में भी अच्छी शिक्षा देनी चाहिये।
मदालसा ने अपने बालकों को बाल्यावस्था में ही ज्ञान और वैराग्य की शिक्षा देकर उन्हें उच्च श्रेणी का बना दिया था।
बच्चे बुरे बालकों एवं बुरे स्त्री-पुरुषों का संग करके कुशिक्षा ग्रहण न कर लें, इसके लिये माता-पिता को विशेष ध्यान रखना चाहिये।
बच्चों को ऐसी शिक्षा देनी चाहिये, जिससे उनका प्रेम श्रृंगार, देह की सजावट, विलासिता आदि में न होकर सदाचार, सद्गुण, सादगी, सेवा और ईश्वर तथा धर्म आदि में प्रवृत्ति हो।
बालकों को गहने पहना कर नहीं सजाना चाहिये। इससे स्वास्थ्य की हानि एवं कहीं- कहीं प्राणों का भी जोखिम ही जाता है।
बल बढ़ाने के लिए व्यावाम और बुद्धि की वृद्धि के लिये विद्या एवं उत्तम शिक्षा देनी चाहिये।
थियेटर सिनमा आदि देखने का व्यसन और बीड़ी, सिगरेट, तम्बाकू, भाँग, गाजा, सुलाफा आदि मादक वस्तुओं का सेवन करने की आदत न पढ़ जाय इसके लिये भी माता-पिता को ध्यान रखना चाहिये।
लड़की और लड़के के खान पान ज्यार-दुलार और व्यवहार में भेद भाव नहीं रखना चाहिये।
प्रायः स्त्रियों खान-पान, प्यार-दुलार आदि में भी लड़कों के साथ जैसा व्यवहार करती हैं, लड़कियों के साथ बैसा नही करतीं।
उनका अपमान करती हैं।
जो स्त्रियाँ इस प्रकार अपने ही बालकों में विषमता का व्यवहार करती हैं, उनसे समता की आशा कैसे की जा सकती है ?
इस प्रकार की विषमता से इस लोक में आपकीर्ति और परलोक में दुर्गति होती है।
अत: बालकों के साथ समता का ही व्यवहार रखना चाहिये।
बहुत-सी स्त्रियाँ भूत, प्रेत, देवता, पीर आदि का किसीे में आवेश समझ कर भय करने लग जाती हैं। यह प्रायः व्यर्थ बात है।
ऐसी बात पर कभी बहम-विश्वास नहीं करना चाहिये। इस प्रकार की बातें अधिकांश में तो हिस्टीरिया आदि की बीमारी से होती हैं।
बहुत-सी जगह तो जान-बूझकर ऐसा ढोंग किया जाता है कभी-कभी वहम या भय से भी आवेश आ जाता है।
अत: इन पर विश्वास नहीं करना चाहिये। यह सब व्यर्थ की और हानिकारक बातें हैं।
इसलिये स्त्रियों को जादू-टोना, हाथ दिखाना, झाड़- फूँक, मन्त्र आदि अपने या अपने घरवालों पर नहीं करवाने चाहिये एवं ऐसा करने वाली स्त्रियों का संग भी नहीं करना चाहिये।
वेश्या, व्यभिचारिणी, लड़ाई-झगड़ा करने वाली निर्लज्ज और दुष्ट स्त्रियों का संग कभी नहीं करना चाहिये।
परंतु उनसे घृणा और द्वेष भी नहीं करना चाहिये। उनके अवगुणों से ही घृणा करनी चाहिये।
बड़ों की, दुखियों की और घर पर आये हुए अतिथियों की एवं अनाथों की सेवा पर विशेष ध्यान देना चाहिये।
यज, दान, तप, सेवा, तीर्थ, व्रत, देवपूजन आदि पति के साथ उनकी आज्ञा के अनुसार उनके सन्तोष के लिये अनुगामिनी होकर करें, स्वतन्त्र होकर नहीं।
पति का जो इष्ट है, वही स्त्री का भी इष्ट है, अत: पति के बताये हुए इष्टदेव परमात्मा के नाम का जप और रूप का ध्यान करना चाहिये।
स्त्रियों के लिये पति ही गुरु है।
यदि पति को ईश्वर भक्ति अच्छी न लगती हो तो पिता के घर से प्राप्त हुई शिक्षा के अनुसार भी ईश्वर भक्ति, बाहरी भजन, सत्संग, कीर्तन आदि न करके गुप्त रूप से मन में ही भगवान् का स्मरण, जप और ध्यान करना चाहिये।
भक्ति का मन से विशेष सम्बन्ध होने के कारण जहाँ तक बन सके, गुप्त रूप से भक्ति करनी चाहिये, क्योंकि गुप्त रूप से की हुई भक्ति विशेष महत्त्व की होती है।
पति जो कुछ भी कहे उसका अक्षरश: पालन करे, किंतु जिस आज्ञा के पालन से पति नरक का भागी हो, उसका पालन नहीं करना चाहिये। जैसे पति काम, क्रोध, लोभ, मोहवश चोरी या किसी के साथ व्यभिचार करने, मांस-मदिरा सेवन करने, किसी को विष पिलाने, जान से मारने, भ्रूण हत्या-गोहत्या आदि घोर पाप करने के लिये कहे तो वह नहीं करे।
ऐसी आज्ञा का पालन न करने से अपराध भी समझा जाय तो भी पति को नरक से बचाने के लिये उसका पालन नहीं करना चाहिये।
जिस काम से पति का परम हित हो, वह काम स्वार्थ छोड़ कर करने की सदा चेष्टा करनी चाहिये ।
पतियों को चाहिये कि वे अपनी सदाचार परायणा साध्वी पत्नियों को कदापि बुरे आचरण करने का आदेश भूलकर भी न दें ।
विधवा स्त्रियों की सेवा पर विशेष ध्यान देना चाहिये; क्योंकि अपने धर्म में दृढ़ रहने वाली विधवा स्त्री देवी के समान है।
उसकी सेवा-शुश्रूषा करने, उसके साथ प्रेम करने से स्त्री इस लोक में सुख और परलोक में उत्तम गति पाती है।
जो स्त्री विधवा को सताती है, वह उसकी हाय से इस लोक में दुखिया हो जाती है और मरने पर नरक में जाती है।
ऊपर बताये हुए पतिव्रत-धर्म को स्वार्थ छोड़ कर पालन करने वाली साध्वी स्त्री इस लोक में परम शान्ति एवं परम आनन्द को प्राप्त होती है।
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रचनाः ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय
श्री जय दयाल जी गोयन्दका
पत्रिका: कल्याण (९३।८)
"जय जय श्री राधे"
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