श्मशान की सिद्ध भैरवी ( भाग--03 )
परम श्रध्देय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अद्भुत अलौकिक अध्यात्म-ज्ञानधारा में पावन अवगाहन
पूज्यपाद गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि नमन
सावन-भादों का महीना था। कुछ देर पहले तक आसमान साफ था, मगर देखते-ही-देखते हवा तेज हो गयी और काले-भूरे बादलों से आसमान भरकर काला हो गया। पहले 'टप-टप' करके बूंदें टपकी फिर झर झर कर बरसने लगा पानी। उद्दाम हवा का विलाप भी गूंज उठा बारिश के लय के साथ। धीरे- धीरे उसकी गति तेज हो गयी।
थोड़ी देर इधर-उधर की बातें करने के बाद अचानक शराब की मांग कर बैठी स्वर्णा। कहने लगी--शराब चाहिए, प्यास लगी है, गला सूख रहा है। जल्दी जाकर ले आओ कहीं से।
मैं घबरा गया। शराब पीने को कौन कहे, उसे स्पर्श तक नहीं किया था मैंने कभी। उस समय इतना पैसा भी नहीं था कि किसी को भेजकर मंगवा लेता।
शायद मेरे संकोच को समझ गयी वह साधिका। उसने एक बार गहरी नज़र से मेरी ओर देखा, फिर दोनों हाथों को हवा में हिलाया।
उसकी यह रहस्यमयी क्रिया मेरी समझ में नहीं आई, मगर दूसरे ही क्षण आश्चर्य और कौतूहल के मिले-जुले भाव से भर गया मेरा मन। देखा--उसके दोनों हाथों में न जाने कब और कैसे बिलायती शराब से भरी हुई दो बोतलें आ गयी थीं। मुस्करा कर बोली वह--ले, तू नहीं लाया तो मैंने ही मंगवा लीं।
मैं क्या बोलता। मुंह बाये शराब की बोतलों की ओर देखता रहा। फिर दोनों बोतलें खाली हो गयीं। कुछ ही क्षणों में सारी शराब पी गयी वह। चेहरा उसका तमतमा उठा और आँखें उसकी गुड़हुल के फूल की तरह लाल हो गयीं।
हवा में हाथ लहरा कर कीमती शराब की बोतल उत्पन्न करने का चमत्कार देखकर मैं उसका रहस्य जानने के लिए उत्कण्ठित हो उठा। योगी-साधकों के द्वारा किसी भी वस्तु की सृष्टि तीन प्रकार से हुआ करती है--योग-बल से, विज्ञान-बल से और प्रेत-बल से। यह मैं जानता था और यह भी जानता था कि प्रेत-बल से इस प्रकार का कार्य निम्न कोटि की सिद्धि है। न वह यथार्थ होता है और न तो स्थायी ही।
सहज भाव से मैंने पूछा--आपने शराब की बोतल किस शक्ति के बल पर मंहवाई है ?
आतंरिक मनः-शक्ति की सहायता से जिसे विज्ञान-बल भी कहा जाता है। आतंरिक मनोबल ही एकमात्र विज्ञान-बल है।
फिर योग-बल क्या है ?
जिस प्रकार मन में आकर्षण-विकर्षण है, उसी प्रकार प्राण में भी आकर्षण-विकर्षण है। यह वेद-विज्ञान का विषय है। वेद में प्राण के आकर्षण-विकर्षण को 'एतिच्-प्रेतिच' कहते हैं। श्वास-प्रश्वास उसके स्थूल या भौतिक रूप हैं। प्राण-बल ही एकमात्र योग-बल है।
क्या दोनों की सहायता से समान रूप से सृष्टि सम्भव है ?
हाँ, जहाँ आकर्षण और विकर्षण तत्व की मात्रा समान और अधिक होगी, वहाँ उसके लिए कुछ भी असम्भव नहीं है। फिर भी योग-बल सर्बश्रेष्ठ है क्योंकि उससे मौलिक सृष्टि होती है।
मौलिक सृष्टि से आपका क्या तात्पर्य है ?--समझा नहीं मैं।
शरीर में ऐसे बहुत से स्थान हैं, जहाँ #शून्य के सिवाय और कुछ नहीं है। योगियों का कहना है कि जहाँ शून्य है, वहीँ शक्ति का केंद्र समझना चाहिए। शरीर में 10-12 शक्ति केंद्र हैं जिनमें कुछ मनः-शक्ति के केंद्र हैं तो कुछ प्राण-शक्ति के। विद्युत् शक्ति की तरह उस शक्ति की भी धनात्मक और ऋणात्मक धाराएँ हैं। पहली धारा में आकर्षण क्रिया और दूसरी धारा में विकर्षण क्रिया कार्य करती है।
मैंने कहा--जैसा कि बतलाया गया है--मन और प्राण के दो रूप हैं। पहला है--बाह्य रूप और दूसरा है--आतंरिक रूप। आपके सिद्धान्त का सम्बन्ध किस रूप से है ?
दोनों के आतंरिक रूप से। आतंरिक मन और प्राण को ही सूक्ष्म मन और सूक्ष्म प्राण कहते हैं। बाह्य मन और प्राण के संयम से सूक्ष्म मन और सूक्ष्म प्राण पर अधिकार किया जा सकता है। प्राण पर अधिकार योग का और मन पर अधिकार तंत्र का विषय है। सूक्ष्म प्राण पर अधिकार हो जाने पर उसकी आकर्षण-विकर्षण शक्ति की सहायता से किसी भी वस्तु की मौलिक सृष्टि की जा सकती है।
क्रमशः---
नोध : इस लेख में दी गई सभी बातें सामान्य जानकारी के लिए है हमारी पोस्ट इस लेख की कोई पुष्टि नहीं करता
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
If you have any doubts,please let me know