श्मशान की सिद्ध भैरवी ( भाग--02 )
परम श्रध्देय ब्रह्मलीन गुरुदेव पण्डित अरुण कुमार शर्मा काशी की अद्भुत अलौकिक अध्यात्म-ज्ञानधारा में पावन अवगाहन
पूज्यपाद गुरुदेव के श्रीचरणों में कोटि-कोटि वन्दन
कहाँ आप और कहाँ वह दुर्गंधयुक्त पागल भिखारिन ?
यह सुनकर उस प्रौढ़ा रूपसी ने जवाब तो नहीं दिया, मगर एक क्षण के लिए मैंने जो कुछ देखा, उसने मुझे एकदम स्तब्ध और रोमांचित कर दिया। उस एक क्षण में मैंने उस प्रौढ़ा महिला को उसी भिखारिन के रूप में देख लिया था। उसके बाद उसने मुझे कब टिकिट दिए, कब मैंने उसके हाथ से टिकिट लिए और कब हॉल में जाकर फ़िल्म देखी--इसका जैसे कुछ होश ही न रहा मुझको। लगातार एक तन्द्रा-सी मुझ पर और मेरी चेतना पर छाई रही। हाँ, इतना अवश्य स्मरण है कि उस महिला के रूप में वह भिखारिन रहस्यमय ढंग से बराबर मेरे साथ बनी रही। फ़िल्म भी देखी थी उसने। उसके अस्तित्व की मुझे बराबर अनुभूति होती रही।
आखिर शो ख़त्म हो गया। जब सिनेमा हॉल से बाहर निकला तो देखा वह भी मेरे साथ चल रही थी। सहसा मेरे कान में फुसफुसा कर बोली--शराब पिलाएगा ?
ऐं ! शराब ?...क्या आप शराब पीएंगी ?
हाँ रे ! बहुत दिनों से नहीं पी है। बहुत प्यास लगी है रे !
नावेल्टी (अब दीपक टॉकीज़) के बगल में एक संकरी सी गली है। उसी गली में उस समय #संगम बार था। खाने-पीने का अच्छा प्रबन्ध था उसमें। मैं स्वर्णा को उसी बार में ले गया। फिर खूब छक कर मदिरा-पान कराया। मुर्गा भी उसने खाया। बिल आया दो सौ बीस रूपये का। अपने मित्र से रूपये लेकर बिल चुकाया मैंने। मेरे पास रुपया कहाँ था इतना।
दूसरे दिन मेरे मित्र फिर मिले मुझसे। कहने लगे--शर्माजी, बड़े ही आश्चर्य की बात है। जो रूपये मैंने दिए थे बिल के रूप में, वे तो मेरी जेब में ही पड़े हैं। भाई यह चमत्कार तो मेरी समझ में नहीं आया। कौन थी वह महिला ? क्या तुमसे फिर भेंट हुई उससे ?
हंसकर टाल दिया मैंने। जवाब भी क्या देता ? यदि मित्र को वास्तविकता से परिचय भी कराता तो क्या वे विश्वास करते ? वे तो मुझे बेवकूफ ही समझते।
उसी दिन तारानाथ भट्टाचार्य महाशय भी मिल गए मुझको। मैंने उन्हें एक-एक करके सारी घटनाएं बतलायीं। सब कुछ सुनने के बाद वे बोले--तुमको तो बतलाया ही था कि उच्च कोटि की तंत्र-साधिका है स्वर्णा। कुण्डलिनी जागृत है उसकी। स्वर्णा को कुण्डलिनी के कारण ही मानवेतर शक्ति प्राप्त है। वह अपनी शक्ति के बल पर असम्भव से असम्भव कार्य कर सकती है--इसमें किसी भी प्रकार का आश्चर्य नहीं।
फिर एक दीर्घ अन्तराल ! उस चमत्कारी सन्यासिनी के दर्शन दुर्लभ हो गए। खोजने का प्रयास भी किया मगर असफल रहा।
आखिर थक-हार कर बैठ गया।
एक दिन साँझ के समय मैं अपने कमरे में बैठा कुछ लिख-पढ़ रहा था, तभी अचानक आ गयी स्वर्णा। आश्चर्यचकित हो उठा मैं। उस समय भी वह भिखारिन की वेशभूषा में नहीं थी, बल्कि बिलकुल किसी राजकुमारी की तरह एकदम राजसी परिधान में सज-धज कर आई थी उस समय। आयु भी कम ही लग रही थी। जान पड़ता था कि 25-26 वर्ष की है। कमरे में घुसते ही वातावरण में जैसे इत्र का सैलाव उमड़ आया हो। चौंक कर पूछा मैंने--अरे ! आप ? यहाँ कैसे आयीं ? मेरा मकान कैसे मिला आपको ? इतने दिनों तक रहीं कहाँ आप ?
इस प्रकार एक साथ मेरे कई प्रश्न सुन कर वह हंस पड़ी एकबारगी। फिर बोली--यह आप-आप क्या लगा रखा है तुमने ? अरे तुम मुझे खोज रहे थे न ? पागल हुए जा रहे थे मेरे लिए, इसलिए सोचा-- मिल लूँ, नहीं तो....
नहीं तो क्या ?
फिर हंसने लगी वह, बोली--तुम न जाने कितने योगियों से मिले हो। न जाने कितने साधक-साधिकाओं से मिले हो। उन सबकी स्मृतियाँ तुम्हारे साथ हैं। सोचा, चलो, मैं भी तुम्हारे मस्तिष्क के किसी एक कोने में स्मृति बनकर हमेशा के लिए रह जाऊँ। कभी तो याद करोगे तुम मुझे ?
स्वर्णा को क्या हो गया है कि इस तरह की बहकी- बहकी बातें कर रही है। कहीं शराब तो नहीं पी रखी है उसने ?
मेरा अनुमान सही निकला। शराब पी रखी थी उसने। उसके मुख से शराब का एक तेज भभका निकला और वातावरण में घुल-मिल गया।
मैंने नाक पर रूमाल रख लिया।
अच्छा तो तुम शराब से घृणा करते हो ?--लड़खड़ाते स्वर में बोली स्वर्णा--देखना एक दिन शराब ही तेरी सिद्धि बन जायेगी। बिना शराब के एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकोगे तुम..समझे।
सचमुच आज भी उस तान्त्रिक सन्यासिनी की स्मृति सुरक्षित है मेरे मस्तिष्क में। लगभग चालीस वर्ष का लम्बा अरसा बीत गया, मगर आज भी वह महान तंत्र -साधिका मेरे मानस-पटल पर छाई हुई है। जब-कभी उसकी स्मृतियों में डूब जाता हूँ, तो ऐसा लगता है कि वह मेरे सामने ही आकर खड़ी हो गयी है और मेरी ओर देखकर मन्द-मन्द मुस्करा रही है।
क्रमशः---
नोध : इस लेख में दी गई सभी बातें सामान्य जानकारी के लिए है हमारी पोस्ट इस लेख की कोई पुष्टि नहीं करता
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